________________ द्रव्यानुयोगतर्कणा [231 गुणपर्यायाः, विभावगुणपर्यायाः इत्थं चत्वारो भेदा द्रव्यगुणभेदात्पर्यायाणां कथनीयाः / स्वजातीयद्रव्यपर्यायः, विजातीयद्रव्यपर्यायः, स्वभावगुणपर्याय:, विभावगुणपर्यायः, इति चत्वारो द्रव्यगुणयोर्मेंदा भावनीया इति // 15 // व्याख्यार्थः-इस प्रकारसे स्वकीय जातिसे जो पर्याय होते हैं वे सजातीय पर्याय कहलाते हैं, तथा परजातिसे जो पर्याय होते हैं वे विजातीय पर्याय कहलाते हैं / और स्वभावसे तथा विभावसे गुणमें पर्याय होते हैं / अर्थात् स्वभाव गुणपर्याय, और विभाव गुणपर्याय दो भेद हैं / ऐसे द्रव्य और गुणके भेदसे पर्यायोंके चार भेद कहने चाहिये / अर्थात् सजातीय द्रव्यपर्याय 1 विजातीय द्रव्यपर्याय 2 स्वभाव गुणपर्याय 3 तथा विभाव गुणपर्याय 4. इस प्रकार दो भेद द्रव्यके तथा दो भेद गुणके इन दोनोंको मिलाके, चार भेद द्रव्य गुण दोनोंके विचारने चाहिये // 15 // बत्र पूर्वोक्तानां भेदानामुदाहरणमाह / / अब पूर्वोक्त सजातीय द्रव्यपर्याय आदि भेदोंके उदाहरण कहते हैं / द्वयणुकं च मनुष्याश्च केवलं मतिचिन्मुखाः / दृष्टान्ता प्रायिकास्तेषु नाणुरन्तर्भवेत्क्वचित् // 16 // भावार्थः-दूधणुक सजातीय द्रव्यपर्याय हैं, मनुष्य आदि विजातीय द्रव्यपर्याय हैं तथा केवल ज्ञान स्वभाव गुणपर्याय है और मतिज्ञान आदि विभाव गुणपर्याय हैं / ये दृष्टांत प्रायिक हैं / क्योंकि, इनमें, कहीं भी अणुका अन्तर्भाव नहीं होता है // 16 // ___ व्याख्या / द्वषणुकं चेति द्विप्रदेशादिस्कन्धः स च सजातीयद्रव्यपर्यायः, कथं तत् / द्वयो! प्ररमाण्वोः संयोगे सति द्वघणुकमेतावता द्रव्यद्वयं संगत्यकद्रव्यं भवतीति सजातीयद्रव्यपर्यायः 1 / मनुष्याश्च मनुजादिपर्याया विजातीयद्रव्यपर्याय इति, जीवपुद्गलयोर्योगे सति मनुष्यत्वव्यवहारो जायते, एतावता विजातीयद्रव्यद्वयं संगत्यकद्रव्यं निष्पन्नमिति विजातीयद्रव्यपर्यायः 2 // अथ केवलमिति केवलज्ञानं स्वभावगुणपर्यायः कथ्यते, कथं तत्-कर्मणां संयोगरहितत्वात्स्वभावगुणपर्यायः 3 / अथ मतिचिन्मुखा मतिज्ञानादयः पर्यायाः विभावगुणपर्यायाः कथ्यन्ते / कथं तत् कर्मणां परतन्त्रत्वाद्विभावगुणपर्याय 4 / इति / एते हि चत्वारो दृष्टान्ताः प्रायिका ज्ञातव्याः / परमार्थतस्तु परमाणुरूपद्रव्यपर्याय एषु चतुर्षु नान्तर्मवितुमर्हति विभागजनितपर्यायस्वात् / तदुक्त संमतौ-अणुएहि दव्व आरद्धति अणंति वयसाण सात्ततो / अपुणविमत्तो अणुत्तिजामो अणू होइ / " इत्यादिकं सर्व विमृश्य विज्ञेयमिति / आरब्धद्रव्यपर्यायेऽणुदयसयोगे सति द्वषणुकं निष्पद्यते, त्रिमिद्वयं णुकल्यणुकं जायते, त्रिमियगुकैश्चतुरणुकमुत्पद्यते / एवं महती पृथ्वी, महत्यापो, महान्तो वायव इत्यादि नैयायिकः प्रणीतत्वात् // 16 // व्याख्यार्थः-जो द्विप्रदेश आदि स्कंध हैं वे सजातीय द्रव्यपर्याय हैं / सो कैसे कि, दो परमाणुओंका संयोग होनेपर द्वयणुक होता है। इससे यह सिद्ध हुआ कि एक जातिके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org