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श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् व्याख्यार्थः-न्यायके अनुसार अर्थात् दिगम्बरमतके ग्रन्थोंमें प्राप्त अभिप्रायसे नव संख्याक (गिन तिमें नौ) (९) नय हैं । इनके नाम पूर्वश्लोकमें गिना चुके हैं; वहांसे जानने चाहिये । तथा उपनय तीन ही हैं, वे उपनय भी पूर्वकथित सद्भूतव्यवहारादि तीन समझने चाहिये । और अध्यात्मनामक कोई मतभेद है। उनमेंसे उस अध्यात्ममतकी शैलीके अनुसार निश्चयसे दो ही नय कहेगये हैं; उनमें एक तो निश्चयनय और दूसरा व्यवहारनय है । इनसे अधिक नहीं; अभेद तथा अनुपचारसे जिसके द्वारा वस्तु निश्चय करी जाती है; वह निश्चयनय है । जैसे--"जीवः शिवः शिवो जीवो नान्तरं शिवजीवयोः । १ ॥” “जीव शिव (सिद्ध)रूप ही है; शिव जीवरूप ही है; शिव और जीव इन दोनोंमें कोई भेद नहीं है;" इस वचनमें अनुपचारसे जीव और शिवका अभेद दर्शाया गया है । और भेद तथा उपचारसे जिसकेद्वारा वस्तुका व्यवहार हो उसको व्यवहार नय कहते हैं । जैसे-कमबद्धो भवेज्जीवः कर्ममुक्तस्तदा शिवः । १।" “कर्मोंसे जो बंधा हुआ होता है; वह जीव है; और जब वह जीव कर्मोसे मुक्त होता है; तव शिवरूप है;" इस वाक्यमें कर्मबन्धनद्वारा जीव और शिवका भेद दर्शाया है ॥ ८॥
अथ नवसु नयेषु प्रथमो द्रव्यार्थिकनय उत्तोऽतस्तस्य भेदा दश तेषु प्रथमभेदं विवरिषुराह ।
अब पूर्वोक्त जो नौ (९) नय हैं; उनमें द्रव्यार्थिक नय सबसे प्रथम कहागया है; इसलिये उसके १० भेदोंमें से प्रथम भेदका विवरण करनेकी इच्छावाले आचार्य अग्रिम श्लोक कहते हैं।
द्रव्याथिकनयस्त्वाद्यो दशधा समुदाहृतः ।
शुद्धद्रव्याथिकस्तत्र ह्यकर्मोपाधितो भवेत् ॥ ६ ॥ __ भावार्थ--नयोंमेंसे प्रथम द्रव्यार्थिकनय जो है; वह दस प्रकारका कहागया है, उन दसों भेदोंमें कर्मकृत उपाधियोंसे रहित शुद्ध द्रव्यार्थिकनय प्रथम (पहला) है ॥९॥
व्याख्या । द्रव्यार्थिकपर्यायाधिकादिक्रमेण नया नव वर्तन्ते तेषु आद्यः प्रथमो द्रब्याथिकनय आद्यो दशवा दशप्रकारः समुदाहृतः । तत्र च प्रथमो द्रव्याथिकनयः शुद्धद्रव्याथिक इति अकर्मोपाधितः कर्मणामुपाधितो रहित: शुद्धद्रव्याथिक: कथ्यते । सद्व्यम । लक्षणंत्विदम् - सीदति स्वकीयान् गुणपर्यायान् व्याप्नोतोति सत् उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्त सत्, अर्थ क्रियाकारि च सत् । यदेवार्थक्रियाकारि तदेव परमार्थसत् । यच नार्थक्रियाकारि तदेव परतोऽप्यमदिति निज २ प्रदेशसमूहैरखण्डवृत्तात्स्वभावविभावपर्यायावति, द्रोष्यति, अदुद्र वदिति द्रव्यम् । गुणपर्यायवद्दयम् गुणाश्रयो द्रव्यं वा । यदुक्त विशेषावश्यकवृत्ती-दवए दूयए दोरवयबो विकारो गुणाण संदावो दव्वं भव्वं मावस्स भूयभावं च जं जोगं । १ । द्र
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