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द्रव्यानुयोगतर्कणा
[ ६७ वति तांस्तान्पर्यायान् प्राप्नोति मुञ्चति वा । १ । यते स्वपर्यायरेव प्राप्यते मुञ्चते वा ।२। द्र: सत्ता तस्या एवावयवो विकारो वेति द्रव्यम । ३ । ४। अवान्तरसत्तारूपाणि द्रव्याणि महासत्ताया अवयवो विकारो भवत्येवेति भावः ।। गुणा रूपरसादयस्तेषां संद्रावः समूहो घटादिरूपो द्रव्यम । ५। तथा भवनं भावस्मत्तिभविष्यतीति मावस्तस्य भाविनः पर्यायस्य योग्यं यद्धव्यं तदपि द्रव्यम, राजपर्यायाह कुमारवत् । ६ । तथा भूतं हि पश्चात्कृतो मावः पर्यायो यस्य तदपि द्रव्यमिति दिक । तदेव द्रव्यमर्थः प्रयोजनं यस्यासौ द्रव्यार्थिकः । अस्त्यर्थे ठक् प्रत्ययः । शुद्धः कर्मोपाधिरहितश्चासौ द्रव्यार्थिकश्च शुद्धद्रव्यार्थिक इति ॥६॥
व्याख्यार्थः-द्रव्यार्थिक, पर्यायार्थिकादि क्रमसे जो नय कहेगये हैं; उनमेंसे प्रथम नय द्रव्यार्थिक नय है; उसके दश भेद हैं; उनमें कर्मोंकी उपाधिसे शून्य प्रथम द्रव्यार्थिकनय शुद्धद्रव्यार्थिकनय कहाजाता है। यहांपर “ सद्दव्य ” जो सत् है; वह द्रव्य है । जो अपने गुण पर्यायोंको व्याप्त करे सो सत् है, उत्पाद ( उत्पत्ति ) व्यय ( नाश ) ध्रौव्य (ध्रुवता वा नित्यता ) से जो युक्त हो उसको सत् कहते हैं। क्योंकि-उत्पादव्यय धौव्ययुक्तं सत्, यह तत्त्वार्थ शास्त्रका सूत्र है । जो अर्थ क्रियाका करनेवाला है; वह सत् कहलाता है; क्योंकि जो पदार्थ अर्थक्रियाकारक ( प्रयोजनसिद्ध करनेवाला ) है; वही परमार्थमें सत् है । और जो पदार्थ अर्थक्रिया नहीं करता वह परसे भी असत् है । ये सब सत्के लक्षण हैं ॥ जो निज २ प्रदेशसमूहोंकेद्वारा अखण्डवृत्त स्वभाव तथा विभाव पर्यायसे द्रवता है, द्रवेगा अथवा द्रवागया सो द्रव्य है । जो गुण तथा पर्यायवाला है; उसको द्रव्य कहते हैं; अथवा जो गुणोंका आश्रय है; वह द्रव्य कहलाता है । यही विषय विशेषावश्यक सूत्रकी वृत्तिमें कहा है कि-जो द्रवाता है, अथवा द्रवा जाता है, सत्ताका अवयव है, सत्ताका विकार है, गुणोंका संद्राव (समूह) है; जो भावका भव्य हैं; जिसका पर्याय पहले कियागया है; सो सब द्रव्य है; अर्थात् ये सब पृथक् २ द्रव्यके लक्षण हैं; (यह तो गाथाका भावार्थ है; और आगे इस ही गाथाकी व्याख्या करते हैं ) जो उन उन पर्यायोंको प्राप्त हो अथवा त्यागे सो द्रव्य है । १। जो अपने पर्यायोंसे प्राप्त किया जाय वा छोडा जाय वह द्रव्य कहलाता है । २। 'दु नाम सत्ताका है; उसहीका जो अवयव हो सो द्रव्य है ।३। अथवा सत्ताहीका जो विकार हो उसको द्रव्य कहते हैं । ४। भावार्थ-अवान्तर (मध्यमें होनेवाले ) जो सत्तारूप द्रव्य हैं; वे महासत्ताके अवयव अथवा विकार होते ही हैं। युग जो रूप रसआदि हैं; उनका जो संद्राव ( संमेलन वा समूह ) घटआदिरूप पदार्थ है; वह भी द्रव्य है । ५। जो होगा सो भाव है; उस भावी पर्यायके योग्य जो पदार्थ है; वह भी द्रव्य है। जैसे राजकुमारमें
१ "द्र का अर्थ सत्ता धातुवोंको अनेकार्थक मानके किया है तब द्रु शब्दसे ॥ तस्य विकारः-पा. ४॥३॥१३४ इस अधिकारमें" दोश्च । पा० ४.३।१६१। इस सूत्रसे यत् प्रत्यय होनेसे दू.xl=द्रोxयंद्रव्यम । ऐसे द्रव्य शब्द सिद्ध हुआ।
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