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श्रीमद्रराजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् राजापर्यायकी योग्यता है; अतः वह राजकुमार राजारूप पर्यायका द्रव्य है । ६ । और ऐसे ही जिसका भाव (पर्याय ) पूर्वकालमें किया गया है; वह भी द्रव्य है । ७। ये सब द्रव्यके लक्षण हैं । यही पूर्व अनेक प्रकारसे व्याख्यात द्रव्य ही है; प्रयोजन जिसका उसको द्रव्यार्थिकनय कहते हैं । द्रव्यार्थिक इस शब्दमें व्याकरणकी रीतिसे प्रयोजन है; इस अर्थमें "ठक्" प्रत्यय है; और उसको इक आदेश होनेसे द्रव्यार्थ + इक - होकर द्रव्यार्थिक ऐसा शब्द सिद्ध होता है । शुद्ध अर्थात् कर्मोंकी उपाधिसे रहित ऐसा जो द्रव्यार्थिकनय है; उसको शुद्ध द्रव्यार्थिकनय कहते हैं ॥९॥
अथ तस्य द्रव्याथिकस्य शुद्धताया विषयं दर्शयन्नाह । अब उस द्रव्यार्थिकनयकी शुद्धताका विषय दर्शाते हुए यह सूत्र कहते हैं ।
यथा संसारिणाः सन्ति प्राणिनः सिद्धसन्निभाः ।
शुद्धात्मानं पुरस्कृत्य भवपर्यायतां विना ॥१०॥ भावार्थः-जो संसारकी पर्यायताको ग्रहण करके अन्तरङ्गमें विद्यमान शुद्ध आत्माको आगे करके कथन करता है; वह शुद्धद्रव्यार्थिकनय है; जैसे संसारके प्राणी सिद्धोंके समान हैं ॥ १० ॥
व्याख्या । प्राणा द्रव्यभावभिन्नाः सन्ति एषां ते प्राणिनः । संसारो गतिचतुष्काविर्मावः सोऽस्ति येषां ते संसारिणाः । यथा येन प्रकारेण शुद्धात्मत्वादिलक्षणेन सिद्धसन्निमा अष्टकर्मनिमुक्तजीवनिमा विद्यन्ते । किं कृत्वा सन्ति शुद्धात्मानं मूलभावं तथा सहजभावं शुद्धात्मनः स्वरूपं पुरस्कृत्याग्ने कृत्वा कथं विना केन विना भवपर्यायतां भवः संसारस्तस्य पर्यायो मावस्तत्ता भवपर्यायता तां विना । एतावता या चानादिकालिकी जीवस्य संसारावस्था वर्त्तते सा प्रस्तुतापि न गण्यते । अविद्यमानोऽपि बाह्याकारणे सिद्धाकारस्तथापि गृह्यतेऽन्तरविद्यमानत्वात् । तदायमात्मा शुद्धद्रव्याथिकनयेन सिद्धसम एवास्तीति भावः । अत्र भावमात्रपरा द्रव्यसङ्गहगाथा । मग्गणगुणठाणेहिं चउदशाहिं हवंति तह अशुद्धणया । विण्णेया संसारी सब्बे सुद्धाहु सुद्ध गया । १ ॥१०॥
व्याख्यार्थः-जैसे 'भव जो संसार उसका जो पर्याय अर्थात् भाव उसका जो भाव है; उसके विना अर्थात् संसारकी पर्यायताके विना शुद्ध आत्माको अर्थात् मूल भाव अथवा सहजभावरूप शुद्ध आत्माके स्वरूपको आगे करके, नरक, तिर्यक् , मनुष्य और देव इन चारों गतियोंके आविर्भावको संसार कहते हैं; वह संसार जिनके होय अर्थात् जिन जीवोंके पूर्वोक्त नरक आदि चार गतियों में से किसी एक गतिका आविर्भाव (प्रकटता) है; वे संसारी कहलाते हैं द्रव्य तथा भाव ये दोनों प्राण जिनके हैं वे प्राणी हैं संसारी ऐसे जो प्राणी वे सिद्धोंके समान है, अर्थात् ज्ञानावरणआदि
१ व्याख्या खण्डान्वय से है परन्तु व्याख्यार्थ अच्छी प्रकारसे अर्थका बोध होने के लिये दण्डान्वयके अनुसार लिखा गया है ।
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