SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 90
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ द्रव्यानुयोगकणा [ ६९ आठों कर्मोंसे रहित जीवोंके समान विद्यमान हैं । तात्पर्य यह कि जब जीवके जो अनादिकाल से संसारकी अवस्था विद्यमान है; उसकी तो प्रस्तुतकी भी गणना ( गिणती ) न की जाय और बाह्य आकारसे अविद्यमान जो सिद्ध स्वरूप है; उसको अभ्यन्तर में विद्य मान होने से ग्रहण करें तब यह आत्मा शुद्ध द्रव्यार्थिकनय से सिद्धोंके समान ही हैं; यहां पर भावमात्रसे शुद्ध आत्माका बोध करने में तत्पर द्रव्यसंग्रहकी गाथा भी है उसका भावार्थ यह है; कि - चतुर्दश १४ गुणस्थान तथा चतुर्दश मार्गणस्थान के भेइसे चतुर्दश १४ प्रकारके संसा जीव अशुद्धनयकी विवक्षासे होते हैं और शुद्धनयकी विवक्षा भावमात्र के ग्रहण करनेसे तो सब जीव शुद्ध ही समझने चाहिये । १ । ॥ १० ॥ अथ द्वितीय भेदमुपदिशन्नाह । अब दूसरे भेदका उपदेश करते हुए कहते हैं । उत्पादव्यययोर्गौणे सत्तामुख्यतया परः । शुद्धद्रव्यार्थिको भेदो ज्ञेयो द्रव्यस्य नित्यवत् ॥११॥ भावार्थ:- उत्पाद ( उत्पत्ति ) और व्यय ( नाश ) इनकी गौणता मानने से तथा सत्ता (ध्रुव अथवा नित्यरूप) की मुख्यता माननेसे सत्ताग्राहक शुद्ध द्रव्यार्थिक नय द्रव्यकी नित्यताके समान समझना चाहिये ॥ ११ ॥ व्याख्या । उत्पादस्य व्ययस्य च गौणतायां तथा सत्ताया धवात्मकतायाश्च मुख्यतायामपर इति द्वितीय भेदः शुद्धद्रव्यार्थिकस्य ज्ञेयः । यत उत्पादव्यययोगौणत्वेन सत्ताग्राहकः शुद्धद्रव्यार्थिको नाम द्वितीयो भेद: 1२ । अस्य मते द्रव्यं नित्यं गृह्यते । नित्यं तु कालत्रयेऽप्यविचलितस्वरूपं सत्तामादायैवेदं युज्यते । कथं पर्यायाणां प्रतिक्षणं ध्वंसिनां परिणामित्वेनानित्यत्वोपलब्धेः । परन्तु जीवपुद्गलादिद्रव्याणां सत्ता अव्यभिचारिणी नित्यभावमलंब्य त्रिकालामिचलितं स्वरूपावतिष्ठते I ततो द्रव्यस्य नित्यवदिति द्रव्यस्य नित्यत्वेन द्वितीयो भेदः ॥ ११॥ व्याख्यार्थः-- पर्यायादिके उत्पाद और व्ययकी गौणतासे विवक्षा करनेपर तथा ध्रुव ( नित्य ) स्वरूप सत्ताको मुख्यतासे विवक्षा करनेपर अपर अर्थात् शुद्ध द्रव्यार्थिक नका दूसरा भेद जानना चाहिये । क्योंकि जब उत्पत्ति और नाश गौण हुए तब केवल सत्तामात्रका ग्राहक वह नय रहा इसलिये यह द्रव्यार्थिकनयका सत्तामाहक शुद्ध द्रव्यार्थिक नामवाला दूसरा भेद है । इस नयके मत में द्रव्यका नित्य स्वरूपसे ग्रहण होता है । और नित्य जो है, सो भूत, भविष्यत् वर्तमान इन तीनों कालों में अविचलितस्वरूप है और यह त्रिकालमें अविचलितस्वरूप नित्य सत्ताको ग्रहण करके ही ठीक होता है 1. क्योंकि -क्षण क्षण में विनाशशील पर्यायोंके परिणामीरना है; अतः उन पर्यायोंमें अनित्यताकी उपलब्धि होती है; परन्तु जीव पुद्गलआदि द्रव्योंकी जो सत्ता है; वह सदा अ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001655
Book TitleDravyanuyogatarkana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhojkavi
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1977
Total Pages226
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Religion, H000, & H020
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy