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________________ द्रव्यानुयोगतर्कणा [ 207 भावार्थः-और जो अनेकप्रदेशता है उसीका नाम भिन्नप्रदेशता है / अब यदि एकप्रदेशता न मानो तो भेद भी अनेक प्रकारका हो जायगा // 5 // व्याख्या। भिन्न प्रदेशता संवानेकप्रदेशस्वभावता | भिन्नप्रदेशयोगेन तथा मिनप्रदेशकल्पनया अनेकप्रदेशव्यवहारकारणयोग्यत्वमुच्यते / यद्ये क प्रदेशस्वभावो न स्यात्तदा असंख्यातप्रदेशादियोगेन बहुवचनवृत्त्यकस्य धर्मास्तिकायस्यक इति व्यवहारासम्भवः स्यात्, बहुधा बहवो धर्मास्तिकाया इत्यादिव्यवहारापत्तिः स्यादिति // 5 // व्याख्यार्थः-जो भिन्न प्रदेशता है वही अनेकप्रदेशस्वभावता है / तात्पर्य यह कि भिन्न प्रदेशके योगसे तथा भिन्न प्रदेशकी कल्पनासे अनेक प्रदेशके व्यवहारकारणयोग्यता कही जाती है / अब यदि एक प्रदेश स्वभाव न हो तो असंख्यात प्रदेश आदिके योगसे बहुवचनको प्रवृत्ति होनेसे एक जो धर्मास्तिकाय द्रव्य माना गया है उसके एक इस व्यवहारकी असंभवता हो जायगी और धर्मास्तिकाय बहुत हैं इत्यादि व्यवहारकी आपत्ति होगी। भावार्थ-असंख्यात प्रदेशोंके धारक धर्मास्तिकायको जो एक द्रव्य माना है वह एकप्रदेशत्वके न माननेसे एक न रहेगा / / 5 / / निष्कम्पत्वं सकम्पत्वं विनानेकप्रदेशताम् / कथं च घटतेऽणूनां सङ्गतिः सर्वदेशजा // 6 // भावार्थः-तथा अनेक प्रदेश स्वभावके विना निष्कंपत्व और सकंपत्व व्यवहार नहीं हो सकता और आकाशादि द्रव्यके अणुओंका सर्वज तथा देशज संयोग भी किस प्रकार घट सकता है // 6 // व्याख्या / अनेकप्रदेशस्वभावो द्रव्यस्य यदि न कथ्यते तदा घटाद्यवयविनो देशतः सकम्पा देशतो निष्कम्पा दृश्यन्ते ते च कथं संभवन्ति / अथावयवकम्पेऽप्यवयवी निष्कम्प इति कथ्यते तदा चलतीति प्रयोगासंभव एव भवेत् / देशवृत्तिकम्पस्य यथा परम्परासंबन्धोऽस्ति तद्व शवृत्तिकम्पाभावस्यापि परम्परा संबन्धोऽस्ति / तस्माद्दे शतश्चलता देशतोऽचलता चेत्यस्खलितव्यवहारेणानेकप्रदेशस्वभावो मन्तव्यः / तथा चानेकप्रदेशस्वभावो नाङ्गीक्रियते तदा आकाशादिद्रव्यस्याणुसङ्गविः परमाणुसंयोगः कथं घटते / सर्वजो देशज इति // 6 // व्याख्यार्थः-अब यदि द्रव्यका अनेक प्रदेश स्वभाव नहीं कहते हो तो घट आदि अवयवी किसी देशमें कंपन ( संचलन ) सहित हैं और किसी देशमें कंपनरहित हैं ऐसे देख पड़ते हैं सो वे कंपसे सहित तथा रहित कैसे हो सकते हैं। क्योंकि यदि एकही प्रदेश है तो वह या तो सकम्प हो होगा या निष्कंप ही होगा / अब कदाचित् यह कहो कि एक प्रदेशस्वभाव अवयवके कंसहित होनेपर भी अवयवी निष्कंप है इसलिये सकर तथा निष्कर दोनों व्यवहार हो सकते हैं तो अवयवी ( घट आदि) चलता है यह जो प्रयोग है सो होहो नहीं सकेगा। क्योंकि, जैसे एकदेश अवयववृत्ति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001655
Book TitleDravyanuyogatarkana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhojkavi
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1977
Total Pages226
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Religion, H000, & H020
File Size19 MB
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