________________ श्रीमद्राजचन्द्रजैनशाखमालायाम् व्याख्यार्थः-रूप, रस, गंध, स्पर्श आदिका जो एक स्थानमें सन्निवेश (स्थिति वा रचना ) है वह मूर्ति है, उस मूर्तिको धारण करनेका जो स्वभाव है वह मूर्त स्वभाव है। और मूर्तसे जो विपरीत ( विरुद्ध ) अर्थात् मूर्तिको न धारण करनेका जो स्वभाव है वह अमूर्त स्वभाव है / यदि जीवके कथंचित् मूर्त स्वभाव न हो तो संसारका अभाव हो जायगा / क्योंकि जीवके शरीर आदिके संबन्ध विना एक गतिसे दूसरी गतिमें गमन नहीं होता / और शरीर आदि मूर्त हैं। मूर्तका अभाव जोवमें माननेसे शरीर आदिके संबन्धका अभाव माना गया और शरीरादि संबन्धके अभावमें अन्य गति में गमनका अभाव हुआ और जब अन्य गतिमें गमनका अभाव हुआ तो संसारका अभाव हुआ / अर्थात् जीवके एक गतिसे दूसरी गतिमें जो जाना है वही संसार है, अतः गत्यन्तरका अभाव हुआ तो संसारका नाश हुआ ही // 3 // अमूर्तत्वं बिना मोक्षः सर्वथा घटते न हि। एकप्रदेशता चेहाखण्डबन्धनिवासता // 4 // भावार्थ:-यदि आत्माके सर्वथा मूर्त स्वभावही माना जावे तो आत्माको मोझ कदापि नहीं हो सकता / और अखन्डबन्धनिवासताको एकप्रदेशस्वभाव कहते है // 4 // व्याख्या / अथ यदि लोकदृष्टव्यवहारेण मूर्तस्वभाव एव आत्मा अङ्गीक्रियते तदा मूर्त्तत्वं हेतुसहस्ररप्यमूर्त्तत्वं न भवेत् / एवं सति मोक्षो न घटामाटीकते / तस्मारमूर्तस्वसंवलितस्य जीवस्याप्यन्तर तया अमूर्तस्वभाव एव मन्तव्य इति / अथैकप्रदेशस्वभाव एकप्रदेशता सा चेहैकत्वपरिणतिरखण्डाकारब. घस्य सन्निवेशस्तस्य निवासता भाजनत्वं ज्ञातव्यम् / निष्कर्षस्त्वयम् -अखण्डतया आकृतीनां सन्निवेश: परिणमनव्यवहारस्तस्य भाजनमाधाराधेयत्वमेकप्रदेशतोच्यत इति // 4 // व्याख्यार्थः-अब लोकके दृष्ट ( देखे हुए ) व्यवहारसे यदि आत्मा सर्वथा मूर्त स्वभावही है ऐसा मानते हो तव तो मूर्त स्वभाव के हजारों हेतुओं ( युक्तियों) से भी अमूर्त्तता नहीं होगी और जब आत्मा कभी अमूर्त न होगा तो मूर्त स्वभावके अभावके विना जीव के मोक्ष कदापि घटित नहीं हो सकता क्योंकि मूतं शरीर आदिका संबन्ध जब नित्य बना हुआ है तब मोक्ष कैसे हो सकता है ? इसलिये मूर्त स्वभावसे मिले हुए जीव के अंतरंगपनेसे अमूर्त स्वभाव भी मानना चाहिये / और ए प्रदेश स्वभाव जो है वही एक प्रदेशता है / उस एकत्व परिणतिको यहां अखंडाकार बन्धके सन्निवेशका भाजन जानना चाहिये / तात्पर्य यह कि अखंड रूपसे जो आकारोंका सन्निवेश अर्थात् परिणमन व्यवहार है उसका जो भाजन अर्थात् आधाराधेयपना है उसको एकप्रदेशता कहते है // 4 // भिन्नप्रदेशता सैवानेकप्रदेशता हि या / न चेदेकप्रदेशत्वं भेदोऽपि बहुधा भवेत् // 5 // Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org