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________________ द्रव्यानुयोगतर्कणा [ 205 अचैतन्यं विना जीवे चैतन्यं केवलं यदि / ध्यानध्येयेष्टशिष्याणां का गतिर्जायते तदा // 2 // भावार्थः-यदि अचेतन स्वभावसे रहित केवल चेतन स्वभावही जीवमें मानो तो ध्यान, ध्येय (जिसका ध्यान किया जाता है उसे ध्येय कहते हैं), गुरु और शिष्य इनकी क्या गति होगी ? // 2 // व्याख्या। अचैतन्यं वर्जयित्वा केवलं चैतन्यं जीवे कथ्यते तदा अचेतनकर्मद्रव्योपश्लेषजनितचेतना- . विकाराहते शुद्धसिद्धसादृश्यं भवेदिति निश्चयः / तदा ध्यानध्येयगुरुशिष्याणां का गतिर्न कापि गतिः / ध्यानं किं ध्यायते, ध्येयश्च को मवति, को गुरुः, शिष्योऽपि क इति व्यवस्थामङ्ग स्यात्, सर्वशास्त्रव्यवहारश्चाग्यथा स्यात् / शुद्धस्याविद्याया वृत्त्यापि क उपकारो भवति / तस्मादलवणा यवागूरितिवदचेतन आत्मा इदमपि कथंचित्कथं न धर्मो जायते // 2 // व्याख्यार्थः-यदि अचेतन स्वभावको छोड़कर, केवल चेतन स्वभावही जीवमें कहा जावे तो अचेतन जो कमैद्रव्य है उसके संबन्धसे उत्पन्न जो चेतनामें विकार है उसका अभाव हो जानेसे सब जीवोंमें शुद्ध जो सिद्ध जीव हैं उनकी समानता हो जाय अर्थात् अचेतन कर्मों के अभावसे सब जीव सिद्धसमान हो जावें ऐसा निश्चय है / और सब जीवोंके सिद्धता होनेपर ध्यान, ध्येय, गुरु और शिष्य इनकी क्या गति ( व्यवस्था ) हो ? अपितु कुछ भी गति नहीं अर्थात् ध्यान किसको ध्यावे ? ध्यान करने योग्य कौन हो, गुरु कौन रहे और शिष्य भी कौन रहे ? अर्थात् कोई न रहे / क्योंकि, सब जीव समान हो गये इसलिये ध्यान, ध्येय, गुरु और शिष्यकी व्यवस्थाका नाश हो जाय और समस्त शास्त्रोंमें जो ध्यान आदिका व्यवहार होता है वह शास्त्रीय व्यवहार भी मिथ्या हो जाय / शुद्ध द्रव्यके अविद्याकी वृत्ति माननेसे भी क्या उपकार होता है ? इसलिये लवणरहित यवागू (लपसी) के सदृश अचेतन आत्मा है यह भी धर्म कथंचित् कैसे नहीं होता है ? अर्थात् होता ही है // 2 // मूर्ति दधाति मूर्त्तत्वममूर्त्तत्वं विपर्ययात् / जीवस्य यदि मूर्त्तत्वं न तदा संसृतिक्षयः // 3 // भावार्थः-मूर्तिको धारण करता है इसलिये मूर्त्तत्व गुण है और जो मूर्तिको नहीं धारण करे वह अमूर्त्तत्व गुण है / यदि जीवके मूर्त्तत्व गुण न मानो तो संसारका क्षय (नाश) हो जावे // 3 // ___ व्याख्या / मूत्तिः परसगन्धस्पर्शादिसन्निवेशता तस्या धरणस्वभावो मूर्त्तत्वं मूर्तस्वभावः / तस्माद्यद्विारीतं तदमूर्तस्वपनुरीसमावः / यदि जीवस्य कचिन्मूर्ततास्त्र पावो न भवेत्तदा शरीरादिसंबन्ध विना गत्यन्तरसंक्रमो न भवति, गत्यन्नरसंक्रमं विना संसारस्यामावो भवेदिति भावः // 3 // Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001655
Book TitleDravyanuyogatarkana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhojkavi
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1977
Total Pages226
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Religion, H000, & H020
File Size19 MB
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