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श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् चेतये, अहं सुखी, अहं दुःखी इति चेतनाव्यवहारः । ततो जातिवृद्धिभग्नक्षतसंरोहणादिजीवनधर्मा भवन्तीति चैतन्यं सप्तमो गुणः ।७। एतस्माद्विपरीतमचैतन्यमजीवमात्रमजीवता जडत्वाच्चेतनावैकल्यमित्यचेतनत्वं गुणः 1८1 रूपादियुक् मूर्तत्वं मूर्त्तता गुणः । रूपादिसन्निवेशाभिव्यङ्गयपुद्गलद्रव्यमात्रवृत्तित्वम ।९। अमूर्त्तत्वं गुणो मूर्त्तत्वामावसमनियतत्वमिति । १० । इति-दर्शव । अत्राचेतनत्वामूर्तत्वयोश्चेतनत्वमूर्त्तत्वाभावरूपत्वान्न गुणत्वमिति नाशनीयम । अचेतनामर्शद्रव्यं वृत्तिकार्यजनकतावच्छेदकत्वेन व्यवहारविशेषनियाम तयोरपि पृथग् गुणत्वात् तन्न पर्यु दासार्थकत्वात्तत्र गर्भपदवाच्यताश्चानुष्णाशीतस्पर्श इत्यादौ व्यभिचारेण परेषामप्यभावत्वानियामकत्वाद्मावान्तरम् । अभावोऽहि कयाचित्त व्यपेक्षया इति नयाश्रयणेन दोषामावाच्चेति ॥ ५॥
व्याख्यार्थः-आत्माका जो अनुभवरूप गुण है; वह चेतनत्व है। अर्थात् यह मैं सुख तथा दुःखआदिका अनुभव करता हूं, अथवा मैं सुखी हूं मैं दुखी हूं यह जो व्यवहार होता है; सो चेतनत्वगुणसे ही होता है; और इस चेतनत्वसे ही उत्पन्न होके बड़ा होना, छिदे हुए कटे हुएका उत्पन्न होना व उगनाआदि जीवनधर्म होते हैं। इस लिये चेतनत्व यह सप्तम गुण है। और इस चैतन्यसे विपरीत अचेतनत्व गुण है; वह अजीवमात्रमें है; यह जड़ है इसलिये चेतनासे रहित है । ऐसे अचेतनत्वनामक अष्टम गुण है । रूपआदिका धारक मूर्त्तत्वनामक नवम गुण है । यह मूर्त्तत्व गुणरूप रस आदिकी स्थितिसे जानने योग्य है; और पुद्गल द्रव्यमें ही रहता है । और मूर्त्तत्वके अभावके साथ समनियत अमूर्त्तत्वनामा दशम गुण है। ऐसे ये सब मिलके दश गुण हुए । यहाँपर अचेतनत्व तथा अमूर्त्तत्व ये दोनो चेतनत्व तथा मूर्तत्वके अभावरूप है; अर्थात् चेतनत्वका अभाव अचेतनत्व है; और मूर्त्तत्वका अभाव अमूर्त्तत्व है; इसलिये अचेतनत्व तथा अमूर्त्तत्व पृथक् गुण नहीं हैं; ऐसी शंका न करनी चाहिये; क्योंकि-अचेतन (चेतनधर्मरहित जड पदार्थ) तथा अमूर्त (धर्म जीवआदि ) द्रव्यवृत्ति जो कार्य उस कार्यके जनकतावच्छेदकत्वरूपसे विशेष व्यवहार अर्थात् अचेतन तथा अमूर्तरूप व्यवहारविशेषके नियामक कारणतावच्छेदक होनेसे अचेतनत्व और अमूर्त्तत्वको भी पृथक् गुणत्व है; और अचेतनत्व तथा अमूर्तत्व इन दोनो पदोंमें नञ् समास जो है सो पर्युदासार्थमें है; इसलिये यहां अचेतनका अर्थ “चेतनसे भिन्न चेतनसदृश कोई द्रव्य
और अमूर्तका अर्थ मूर्तसे भिन्न मूर्तसदृश द्रव्य" है । उन अचेतन तथा अमूर्त द्रव्यों में रहनेवाला जो धर्म वही अचेतनत्व तथा अमूर्तत्व है । क्योंकि-चेतनभिन्न नथा चेतनसदृश अचेतनत्वमें समासगर्भ वाच्यताका ही अंगीकार है। और अनुष्णाशीतस्पर्श
(१) नन् दो प्रकारका है; एक पयुंदाप और दूसरा प्रसज्य, इनमें पयुंदाप तो मशका ग्राही होता है। जैसे अब्राह्मणको लाओ" यहां ब्राह्मगमित ब्रह्मगसदृश किसी मनुष्यको लाओ ऐसा तारार्य है। और प्रसज्य निषेधक है; जैसे "अद्रव्य" से द्रव्याभावका ग्रहण होता है।
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