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द्रव्यानुयोगतर्कणा
[ १०१ रहता है; अर्थात् धर्म अधर्मआदि जो द्रव्य हैं; उनके उपचारसे जो परवस्तुका परिणाम है; उस परिणामके संसर्गसे उत्पन्न असद्ध तव्यवहार कहा जाता है । यहांपर शुद्ध स्फटिकमणिके समान जीवभावका ग्रहण है । उस जीवभावका परवस्तु कर्म है; उसकी परिणति पंचवर्णादि रौद्रात्मिका है; उस पंचवर्णादि रौद्रस्वरूप परिणतिका सन्बन्ध जीव प्रदेशोंके साथ कर्मप्रदेशोंका संसर्ग होना है, उस परपरिणतिसे जन्य अर्थात् उत्पन्न असद्भ तव्यवहारनामक द्वितीय भेद कहा गया है । और वह असद्भ तव्यवहार नौ ९ प्रकारका है; जैसे द्रव्यमें द्रव्यका उपचार १ गुणमें गुणका उपचार २ पर्यायमें पर्यायका उए चार ३ द्रव्यमें गुणका उपचार ४ द्रव्यमें पर्यायका उपचार ५ गुणमें द्रव्यका उपचार ६ गुणमें पर्यायका उपचार ७ पर्यायमें द्रव्यका उपचार ८ तथा पर्यायमें गुणका उपचार यह नौ ९ भेद असद्भ तव्यवहारके हैं । इस प्रकार इन सब भेदोंको असद्भ तव्यवहारका ही अर्थ समझना चाहिये । असद्भ तमें अन्तर्भाव होनेसे ही उपचार प्रथग् नय नहीं होता है; क्योंकि-मुख्यके अभाव में प्रयोजन तथा निमित्तमें उपचारकी प्रवृत्ति होती है। और वह उपचार भी एक अविनाभाव (व्याप्ति) रूपसंबंध ही है । जैसे कि-परिणामपरिणामिभावसंबन्ध, श्रद्धाश्रद्धयभावसंबन्ध, तथा ज्ञानज्ञेयभावसंबन्ध । जिससे भेदके उपचारसे वस्तुका व्यवहार किया जाय सो व्यवहार है । जैसे गुण गुणीका, संज्ञा संज्ञी (नाम नामी) का, स्वभाव स्वभाववान् का, कारक कारकवान तथा क्रिया और क्रियावान्के भेद रहनेपर भी जो अभेदक है; अर्थात् अभेद दर्शाता है; वह सद्भ तव्यवहार है । और शुद्ध गुण गुणी, तथा शुद्ध द्रव्य और पर्यायका जो भेदका कथन है; वह शुद्धसद्भ तव्यवहार है । उसमें भी उपाधिसहित गुण गुणीके भेदविषयक जो है; वह उपचरितसद्भ तव्यवहार है, जैसे जीवके मति ज्ञानआदि गुण हैं। और उपाधिरहित गुण गुणीके भेदका कथन करनेवाला अनुपचरित सद्भ तव्यवहार है; जैसे जीवके केवलज्ञानआदि गुण हैं । यहां पूर्वमें तो जीव कर्मआदि उपाधिसहित है; उसका तथा उसके मति ज्ञानआदि गुणोंका भेद दर्शाया गया है, और अन्तके उदाहरण में जीव कर्मादि उपाधियोंसे रहित विवक्षित है; अतएव उपाधिरहित जीव गुणी तथा केवलज्ञानआदि उसके गुणोंका भेद अनुपचरितसद्भत उपनयसे दर्शाया गया है । तथा शुद्ध गुण गुणी और अशुद्ध द्रव्य पर्यायके जो भेदका कथन है; वह अशुद्धसद्भतव्यवहार है ॥ इत्यादि अन्य भी प्रयोगके अनुसार समझ लेना ॥४॥
अथ नवभेदानसद्भ तव्यवहारजन्यान्विवृणोति । अब जो असद्ध तव्यवहारसे उत्पन्न नो भेद हैं; उनका विवरण करते हैं ।
द्रव्ये द्रव्योपचारो हि यथापुद्गलजीवयोः । गुणे गुणोपचारश्च भावद्रव्याख्यलेश्ययोः ॥५॥
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