________________
१०२ ]
श्रीमद्रराजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम्
भावार्थः — पुद्गलमें जीवका जो मानना है; सो तो द्रव्यमें द्रव्यका उपचार है; भावलेया जो द्रव्यलेश्याका कथन करना है; सो गुणमें गुणका उपचार है ॥ ५ ॥
व्याख्या | हि निश्चितं द्रव्ये गुणपर्यायवति वस्तुनि द्रव्योपचारः । द्रव्यस्य प्रस्तुतस्योपचार उपच रणमात्रधर्मः । यथेति दृष्टान्तः । श्रीजिनस्यागमे पुद्गल जीवयोरैक्यं जीवः पुद्गलरूपः पुद्गलात्मकः । अत्र जीवोऽपि द्रव्यम, पुद्गलोऽपि द्रव्यम्, उपचारेण जीवः पुद्गलमय एवासद्भूतव्यवहारेण मन्या न तु परमार्थतः । यथा च क्षीरनीरयोर्व्यायात् । क्षीरं हि नीरमिश्रितं क्षीरमेवोच्यते व्यवहारादेवमत्र जीवद्रव्ये पुद्गलद्रव्योपचारः ||१|| पुनर्गुणे गुणोपचारो गुणे रूपादिके गुणस्योपचारः । यथा मावलेश्या द्रव्य लेश्ययोरुपचारः । भावलेश्या ह्यात्मनोऽरूपी गुणस्तस्य हि यत्कृष्णनीलादिकथनं वर्तते तद्धि पुद्गलद्रव्यजगुणस्योपचारोऽस्ति । अयं ह्यात्मगुणस्य पुद्गल गुणस्योपचारो ज्ञातव्यः ||५||
व्याख्यार्थः- निश्चय करके द्रव्यमें अर्थात् गुणपर्यायवान् वस्तु में प्रस्तुत द्रव्यका उपचार अर्थात् धर्ममात्रका आरोप करना । यथा इस शब्द से दृष्टान्त कहते हैं । जैसे श्रीजिनदेवके आगम में पुद्गल और जीवकी एकता है; अर्थात् जीव पुद्गलरूप है । यहां जीव भी द्रव्य है; और पुद्गल भी द्रव्य है; इसलिये उपचारसे जीव पुद्गलमय ही है; ऐसा असद्भूतव्यवहारसे माना जाता है, न कि परमार्थसे । यहां पर जीवको पुद्गलरूपता क्षीर नीरके न्यायसे है; अर्थात् व्यवहारसे जलमिश्रित भी दुग्ध दुग्ध ही कहा जाता है; इसी प्रकार यहां भी जीवद्रव्य में पुद्गल द्रव्यका उपचार ( आरोप ) है; तात्पर्य यह कि - जल दुग्धमें मिलकर दुग्धाकार हो जाता है; और दुग्धके ग्रहणसे ही उसका ग्रहण होता है; ऐसे ही पुद्गल में मिलनेसे जीव भी पुद्गलाकार समझा जाता है । और गुण जो रूपआदि हैं; उनमें गुणका ही आरोप करना सो गुण में गुणका अचार है । जैसे भावलेश्या में द्रव्यलेश्या का उपचार होता है । भावार्थ - भावलेश्या जो है; वह आत्माका अरूपी गुण है । उस आत्माके भावलेश्यानामक रूपरहित गुणको कृष्ण, नील इत्यादिरूपसे कहते हैं । और वह कृष्ण, नीलआदिरूप जो कथन है; सो पुद्गलसे उत्पन्न हुए गुणका उपचार है । इसको आत्माके गुणके पुद्गलके गुणका उपचार जानना चाहिये । क्योंकि भावलेश्या तो आत्माका अरूपी गुण है; और कृष्ण नीलआदि पुद्गलके गुण हैं ||१५||
पर्याये किल पर्यायोपचारश्च यथाभवेत् ।
स्कन्धा यथात्मद्रव्यस्य गजवाजिमुखाः समे ॥६॥
भावार्थः—–पर्यायमें पर्यायका उपचार करना यह असद्ध तव्यवहारका तृतीय भेद हैं; जैसे आत्मद्रव्यपर्यायके तुल्य गज तथा अश्व आदि पर्यायस्कंध होते हैं ||६||
पर्यायस्य
Jain Education International
व्याख्या । पर्याये पर्यायविषये नरत्वादिके पर्यायस्य तदादिकस्यैवोपचारः । यथात्मद्रव्यगजवाजिमुखाः उपचारादात्मद्रव्यस्य समानजातीय द्रव्यपर्यायास्तेषां
पर्यायस्कन्धा
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org