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________________ द्रव्यानुयोगतर्कणा [ १०३ स्कन्धाः कथ्यन्ते । ते चात्मपर्यायस्योपरि पुद्गलपर्यायस्योपचरणात्स्कन्धा व्यपदिश्यन्ते व्यवहारात् ॥ ६ ॥ व्याख्याथः-पर्यायमें अर्थात् आत्मद्रव्यके मनुष्यआदि पर्यायमें मनुष्यआदि पर्यायका ही उपचार जो है, वह पर्यायमें पर्यायका उपचार कहलाता है । जैसे आत्मद्रव्यपर्यायके हस्ती ( हाथी) अश्व (घोड़ा) आदि पर्यायस्कन्ध उपचारसे आत्माके समानजातीय (तुल्य ) जो द्रव्य पर्याय है, उनके स्कन्ध ( प्रदेश ) कहे जाते हैं। और वह आत्माके पर्यायके ऊपर पुद्गलके पर्यायका उपचार करनेसे व्यवहारकी अपेक्षासे स्कन्धरूपसे व्यपदेशित होते हैं । अथ द्रव्यमे गुणोपचारः। अब द्रव्यमें गुणका उपचार दिखाते हैं । द्रव्ये गुणोपचारश्च गौरोऽहमिति द्रव्यके । पर्यायस्योपचारश्च ह्यहं देहीति निर्णयः ॥७॥ भावार्थः—और मैं गौर हूं यह तो आत्मद्रव्यमें गुणका उपचार हैं, तथा मैं देही हूं यह आत्माद्रव्यमें पर्यायका उपचार है ।। ७॥ व्याख्या । यथाहं गौर इति ब्रुवतामहमित्यात्मद्रव्यम्, तत्र गौर इति पुद्गलस्योज्ज्वलताख्यो गण उपचरितः । ४। अथ द्रव्ये पर्यायोपचारः । अथवा "अहं देहीति निर्णयः" इत्यत्राहमित्य तत्रात्मद्रव्यविषये देहीति देहमस्यास्तीति देही । देहमिति पुद्गलद्रव्यस्य समानजातीयद्रव्यपर्याय उपचरितः ।५॥ ॥७॥ व्याख्यार्थः-जैसे मैं गौरवर्ण हूँ ऐसा कहनेवालोंकेलिये यहांपर "अहम्" यह आत्मद्रव्य है, उसमें गौर इस पुद्गलके उज्ज्वल नाम गुणका उपचार किया गया है । अब द्रव्यमें पर्यायके उपचारका उदाहरण कहते हैं। जैसे कि मैं देही हूं अर्थात् मैं शरीरवान हूं ऐसा निर्णय करना यहां "अहं देही" (मैं देहवाला हूं) इस वाक्यमें "अहम्" पदसे आत्मद्रव्य विवक्षित है, उस आत्मारूप द्रव्यमें देही अर्थात् जिसके देह है, तो देह सहित होना यह पुद्गलद्रव्यके पर्यायका उपचार हुआ है ॥७॥ गुणे द्रव्योपचारश्च पर्यायेऽपि तथैव च । गौर आत्मा देहमात्मा दृष्टान्तौ हि कमात्तयोः ॥८॥ भावार्थ:-गुणमें द्रव्यका उपचार यह षष्ठ और पर्यायमें गुणका उपचार यह सप्तम असद्भ तव्यवहार उपनयके भेद हैं । "आत्मा गौर है" यह षष्ठ नयका और देह आत्मा है, यह सप्तमका क्रमसे दृष्टान्त है ॥८॥ व्याख्या । गुणे द्रव्योपचारश्च तथा पर्याये गुणोपचारश्च वं द्वावुपनयासद्भूतव्यवहारस्य भेदौ । अथ तयोरेवानुक्रमेण दृष्टान्तौ । यथा " अयं गौरो दृश्यते स चात्मा " अत्र गौर मुद्दिश्यात्मनो विधानं क्रियते यत्तदिह गौरतारूपपुद्गलगुणोपर्यात्मद्रव्यस्योपचारपठन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001655
Book TitleDravyanuyogatarkana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhojkavi
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1977
Total Pages226
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Religion, H000, & H020
File Size19 MB
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