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श्रीमद्रराजचन्द्र जैनशास्त्रमालायाम्
मिति । पर्याये द्रव्योपचारो यथा " देहमित्यात्मा" अत्र हि देहमिति देहाकारपरिणतानां पुद्गलानां पर्यायेषु विषयभूतेषु चात्मद्रव्यस्योपचारः कृतः । देहमेवात्मा देहरूपपुद्गलपर्यायविषय आत्मद्रव्यस्यापीद्गलिकस्योपचारः कृत इति सप्तमो भेदः । " अतति सातत्येन गच्छति तांस्तान्पर्यायानित्यात्मा" अत्र पर्यायाणां द्रव्य भावभेदितानां गमनप्रयोगो यद्यपीष्टस्तथाप्यसद्भूतव्यवहारविवक्षाबलेनोपचारधर्मस्यैव प्राधान्याद्वहिः पर्यायावलम्बनेन कर्मज शुभाशुभपुद्गल परिणत गौराख्यवर्णोऽपि लक्षित आत्मा मासते तदा गौर आत्मेति प्रतीतिर्जायते । अन्यथात्मनः शुद्धस्याकर्मणः कुतो गौरत्वध्वनिरत एवोपचारधर्मः देहमात्मेत्यत्र त्वौदारिकादिपुद्गलप्रणीतं देहमौदयिकेनाश्रित आत्मा उपलभ्यते तदा देहमात्मेत्युपचारध्वनिः ॥ ८ ॥
व्याख्यार्थः- गुण में द्रव्यका उपचार, और पर्यायमें द्रव्यका उपचार यह दोनों क्रमसे षष्ठ तथा सप्तम असद्भ ूतव्यवहार उपनयके भेद हैं, अब इन दोनोंके क्रमसे उदाहरण यह हैं । जैसे "यह जो गौर देखने में आता है; वह आत्मा ही हैं" इस वाक्य में गौरको उद्देश्य करके आत्मारूप द्रव्यका जो विधान किया जाता है; वह गौरतारूप पुद्गल द्रव्यके गुणके ऊपर आत्मद्रव्यका उपचारपठन है । अब पर्याय द्रव्यका उपचार जैसे यह देह आत्मा है; इस वाक्य में " देहम्" देह आत्मा है; ऐसा कहने में विषयभूत जो देहके आकार पुद्गलोंके पर्याय हैं; उनमें आत्मद्रव्यका उपचार किया गया है ; भावार्थ देह ही आत्मा है; यहां देहरूप पुद्गल पर्याय के विषय में अपौद्गलिक अर्थात् पुद्गलभिन्न जो आत्मद्रव्य है; उसका उपचार किया गया है; ऐसा पर्याय में द्रव्यका उपचाररूप सप्तम भेद है |७| अब आत्मा शब्द निरन्तरगमनार्थक अत् धातुसे मन् प्रत्यय लगानेसे बनता है; इसलिये उन २ पर्यायोंमें जो निरन्तर गमन करे वह आत्मा है । यहांपर द्रव्यभावसे भेदको प्राप्त पर्यायोंका यद्यपि गमनरूपसे प्रयोग इष्ट है; तथापि असत व्यवहार उपनयकी विवक्षाके बलसे उपचार धर्मको हो प्रधानता है, इसलिये बाह्यदेश में पर्यायोंका अवलम्बन करनेसे कर्मोंसे उत्पन्न शुभ तथा अशुभ पुद्गलोंके परिणामरूप जो गौर ( उज्ज्वल ) नामा वर्ण है; वह भी देखा हुआ जब आत्मा भासता है; तब यह गौर आत्मा है; ऐसी प्रतीति उत्पन्न होती है, अन्यथा परमार्थ में शुद्ध तथा कर्मरहित आत्म गौरucer कथन कहांसे हो सकता है । इसीलिये उपचार धर्म है । और “देहमात्मा" देह आत्मा है; यहांपर औदारिकआदि शरीरसम्बन्धी पुद्गलोंसे शरीरकी औदयिक भावसे आश्रित आत्मा प्राप्त होता है; तब यह देह आत्मा है; ऐसे उपचारकी ध्वनि होती है ॥८॥
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अथाष्टमभेदोत्कीर्तनमाह ।
अब अष्टम भेदका निरूपण करते हैं ।
गुणे पर्यायचारश्च मतिज्ञानं यथा तनुः । पर्याये गुणचारोऽपि शरीरं मतिरिष्यते ॥९॥
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