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श्रीमद्रराजचन्द्र जैनशास्त्रमालायाम्
सिद्धस्य पर्यायः सादिरस्त्युत्पत्तिमत्त्वात् । सर्वकर्मक्षयासिद्धपर्याय उत्पन्नः यस्तु नित्योऽविनश्वरत्वात् । सिद्धपर्यायः सदाकालावस्थितो लभ्यते । राजपर्यायसमं सिद्धपर्यायद्रव्यं भावनीयम् ।
व्याख्यार्थः– द्वितीय पर्यायार्थिक सादि अर्थात् आदि सहित है; और सिद्धस्वरूपके समान नित्य है, जैसे उत्पत्तिमान् होनेसे सिद्धका पर्याय सादि है; यद्यपि संपूर्ण कर्मोंके क्षयसे सिद्ध पर्याय उत्पन्न हुआ है; तथापि वह अविनाशी होनेसे नित्य है; क्योंकि - सिद्ध पर्याय सदा कालमें अवस्थितरूप मिलता है, इसलिये राज पर्यायके समान सिद्धपर्याय द्रव्यकी भी भावना करनी चाहिये ।
अथ तृतीयपर्यायार्थिकः श्लोकार्थेन पुनरग्रेन न श्लोकानाह ।
अब तृतीय श्लोकके उत्तरार्द्धसे तथा चतुर्थश्लोक के पूर्वार्द्धसे पर्यायार्थिकका तृतीय भेद कहते हैं ।
सत्तागौणतयोत्पादव्यययुक् सदनित्यकः ॥ ३ ॥
एकस्मिन्समये यद्दत्पर्यायो नश्वरो भवेत् ।
भावार्थ:- सत्ताको गौण माननेसे उत्पत्ति नारासहित अनित्यशुद्धपर्यायार्थिक यह तृतीय भेद है ||३|| जैसे एक समय में जिस पर्यायकी उत्पत्ति होती है; उसका समयान्तर में नाश भी होता है; अर्थात् एक समय में पर्याय नाशशील भी है ।
व्याख्या । सत्तागोणतथा ध्रुवत्वेनोसादव्ययग्राहकः सदतित्यकः संवासावनित्यश्चानित्यशुद्धत ययार्थिकः कथ्यते । सच्छब्देन शुद्धमित्यर्थस्तदा अनित्यशुद्धपर्यायार्थिको भवति । कीदृश उत्पादव्यययुक् उत्पादश्च व्ययोत्पादव्ययौ ताभ्यां युक् सहितः । सतो हि वस्तुन उत्पादव्ययी पर्यायेण भवतस्तस्मात्सत्तागौणतया सत्ताया अप्राधान्येन, उत्पादव्यययोः प्राधान्येन "अनित्यशुद्धपर्यायार्थिकः " ॥ ३ ॥ तत्र दृष्टान्तमाह ॥ यथैकस्मिन्समये पर्यायो नश्वरः पर्यायो विनाशी भवेत् । यद्वच्छन्दः यथा पर्यायवाचक: । अत्र हि नाशं कथयतः पर्यायस्योत्पादोऽप्यागतः परं ध्रौव्यं तु गौणत्वेन न दर्शितम् । प्राधान्याप्राधान्ययोः प्राधान्यविधिर्बलवान् । तस्माद्यस्य प्रधानत्वं तस्यैवोत्पत्तिनाशयोः समावेशः । सत्ता हि ध्रुवे नाशे च विचरन्त्या - त्मनो गौणत्वव्यपदेशिवर्त्तमानत्वमुभयत्र निक्षिपतीति ।
व्याख्यार्थः - सत्ताको गौण मानकर अर्थात् अध्रुवत्वका आरोप करके उत्पाद तथा व्यय (उत्पत्ति और नाश) का ग्राहक सदनित्य अर्थात् अनित्यशुद्धपर्यायार्थिक तृतीय भेद कहा जाता है; “सदनित्य" यहां पर जो सत् शब्द है; उसका शुद्ध यह अर्थ करते हैं; और नित्य अर्थ नहीं करते हैं; तब अनित्यशुद्धपर्यायार्थिक यह अर्थ हुआ | कैसा है; यह चत्पाद और व्यय इन दोनों करके सहित हैं; क्योंकि - विद्यमान वस्तुका उत्पाद तथा नाश पर्याय से होता है; इसलिये सत्ताकी अप्रधानतासे और उत्पाद तथा व्ययकी प्रधानतासे अनित्यशुद्धपर्यायार्थिक यह तृतीय भेद कहा गया || ३ || इसी विषय में अग्रिम श्लोकके
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