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________________ द्रव्यानुयोगतकणा पूर्वार्द्धसे दृष्टान्त कहते हैं; इस श्लोकमें 'यद्वत्' यह शब्द यथा ( जैसे ) शब्दके अर्थका वाचक है; इसलिये जैसे एक समयमें पर्याय विनश्वर (विनाशशील ) होता है, यहांपर पर्यायका नाश कहतेहुएके पर्यायका उत्पाद भी आगया अर्थात् जैसे एक समयमें पर्यायका नाश होता है। ऐसे ही एक समयमें उसकी उत्पत्ति भी होती है; परन्तु ध्रौव्य( नित्यत्व ) को तो गौणतासे नहीं दर्शित किया क्योंकि--"प्रधान तथा अप्रधान इन दोनोंमें प्रधानविधि अधिक बलवान होती है" इस हेतुसे जिसकी प्रधानता है; उसीका उत्पत्ति और नाशमें समावेश है; और सत्ता जो है; वह तो ध्रुव और नाशमें विचरती हुई पर्यायको उत्पत्ति तथा नाशदशामें अपने गोणत्वव्यपदेशमें वर्तमानताको निक्षिप्त करती है ॥३॥ अथ चतुर्थभेदमुपदिशन्नाह । अब चतुर्थ भेदका उपदेश करते हैं। सत्तां गृह्णन् चतुर्थाख्यो नित्योऽशुद्ध उदीरितः ॥ ४ ॥ यथोत्पादव्ययध्रौव्यरूपै रुद्धः स्वपर्ययः । एकस्मिन्समये-- भावार्थ:-सत्ताको ग्रहण करता हुआ नित्य अशुद्ध पर्यायार्थिक चौथा भेद कहागया है॥४॥ जैसे उत्पाद व्यय तथा धोव्यरूप तीनों लक्षणोंसे रुद्ध स्वकीय पर्याय एक समयमें है। व्याख्या । सत्तेति । सतां ध्र वत्वं गृलनङ्गीकुर्वन् चतुर्थास्यश्चतुर्थो भेदो नित्याराद्धपर्यायाथिक उदीरितः कथित इति श्लोकार्थः ॥ ४ ॥ अथामुमेत्र दृष्टान्तेन द्रढयति । यथैकसमय मध्ये पर्यायो रूपत्रययुक्त उत्पादव्ययध्रौव्यलक्षण रुद्धः । किं च कोऽपि पर्यय, उत्तरचरो रूपादि: पाकानुकूलघटे श्यामवर्णः पूर्वचरो नष्टस्तत उत्तरो रक्तवर्ण उत्पन्नः रूपी घटः श्यामो वा रक्तो वेति वितर्यमाणः सत्तया तथाकारपरिणतपर्ययः प्राप्यत इति । अत्र हि पर्यायस्य शुद्धरूपं सत्ता सा यदि गृह्यते तदा नित्याशुद्वपर्याधायिको भवति । सत्तादर्शनमेवाशुद्धमिति । व्याख्यार्थः--सत्ता(ध्रवत्व)को अंगीकार करता हुआ नित्य अशुद्ध पर्यायार्थिक यह चतुर्थभेद कहा गया है। यह चतुर्थ श्लोकके उत्तरार्द्धका अर्थ है॥४॥ अब पञ्चम श्लोकके पूर्वार्द्धसे पूर्व विषयको दृष्टान्तसे दृढ़ करते हैं। जैसे एक समयमें पर्याय उत्पाद, व्यय तथा ध्रौव्यरूप तीनों लक्षगोंसे अवरुद्ध (युक्त) है; क्योंकि-याकके अनुकूल घटमें जब पूर्वचर (पहला) श्यामवर्णरूपी पर्याय नष्ट हुआ तब उत्तरचर रूपादि अर्थात् आगे होनेवाला रक्तवर्ण उत्पन्न हुआ। यहांपर घट है; सो रूपवाला है; परन्तु श्याम है; अथवा रक्त है। इस प्रकार जब उसके रूपका विचार कियागया तब सत्तासे उस रक्त आकारको परिणत होकर रक्त पर्यायको प्राप्त होता है। अब यहां रक्तपर्यायका उत्पाद श्यामपर्यायका व्यय (नाश) तथा घट द्रव्यका ध्रौव्य इस प्रकार उत्पाद व्यय तथा ध्रौव्य स्वरूप तीनों लक्षणोंसे युक्त है। यहां पर्यायका ११ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001655
Book TitleDravyanuyogatarkana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhojkavi
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1977
Total Pages226
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Religion, H000, & H020
File Size19 MB
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