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श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम्
शुद्ध स्वरूप सत्ता है; वह सत्ता जब ग्रहण की जाती है; तब नित्य अशुद्ध पर्यायार्थिक यह चतुर्थ भेद सिद्ध होता है । यहांपर सत्ताका जो दर्शन है; सो ही अशुद्ध है; इस लिये यह नित्य अशुद्ध पर्यायार्थिक नय कहलाया ।
अथ पञ्चमभेदोत्कीर्त्तनं करोति ।
अब पंचम भेदका वर्णन करते हैं ।
ऽथातः पर्यायार्थिकपञ्चमः ॥ ५ ॥
कर्मोपाधिविनिर्मुक्तो नित्यः शुद्धः प्रकीत्तितः ।
यथा सिद्धस्य पर्यायैः समो जन्तुर्भवी शुचिः ॥ ६ ॥ भावार्थ:- अब इसके आगे पर्यायार्थिकका पंचम भेद ॥ ५ ॥ नित्यशुद्ध पर्यायार्थिक कहागया है । कैसा है; यह नय कर्मजनित उपाधियोंसे रहित है । जैसे संसारी जीव सिद्धके पर्यायोंके समान पवित्र है ॥ ६ ॥
व्याख्या । अथातः परं पर्यायार्थिकपञ्चमो ज्ञेयः ॥ ५ ॥ नित्यशुद्धपर्यायार्थिकोऽस्ति । कीदृशः कर्मोपाधिविनिर्मुक्तः कर्मणामोपाधिकानांमन्यद्रव्याणां कुतश्चित्सङ्गतानामुपाधिः साहचर्यं तेन विनिर्मुक्तो रहितः कर्मोपाधिविनिर्मुक्तः । यथेति यथाशब्देन दृष्टान्तं विषयीकरोति । यथा भत्री मवः संसारोऽस्तीति भवी संसारी जन्तुः प्राणी सिद्धस्य कर्मोपाधिविनिर्मुक्तस्य सिद्धस्य पर्यायः समः शुचिर्निर्मलः । संसारे संसरतः प्राणिनोऽष्टावपि कर्माणि सन्ति तानि च विचार्यमाणान्युपाधिरूपाणि वर्तन्ते । यद्वदग्नेः शुद्धद्रव्यस्याद्रन्धन संयोगजनितो घूम औपाधिक एव संमाध्यते । तद्वदिहापि विद्यमानान्यपि कर्माण्यनात्मगुणaatपाधिकानि सन्ति । अनस्तेभ्यो युक्तोऽप्ययुक्ततया विचिन्त्यमानः प्राणो सिद्ध एवेति कर्मोपाधिभाव: सन्नपि न विवक्षणीयः । अथ च ज्ञानदर्शनचारित्राणि छन्नान्यपि बहिः प्रकटतया विवक्षितानि । ततो नित्यशुद्धपर्यायार्थिक भेदस्य भावना संपद्यते ॥ ६॥
व्याख्यार्थः:- अब इस चतुर्थभेदके पश्चात् पर्यायार्थिकका पञ्चम भेद जानना चाहिये || ५ | वह पंचमभेद नामसे " नित्यशुद्वायार्थिक" है । वह कैसा है; किकर्मोपाधिविनिर्मुक्त है; अर्थात् कर्म जो किसी कारणवशसे संगत उपाधिक अन्य द्रव्य हैं; उनकी जो उपाधि ( साहचर्य ) अर्थात् आत्माकी साथ सहभाव है; उससे रहित है । जैसे भव ( संसार ) को धारण करनेवाला जो भत्रो अर्थात् संसारी जीव है; वह कर्मोंकी उपाधि से रहित ऐसे जो सिद्ध हैं; उनके समान शुचि अर्थात् निमल है । भावार्थ संसार में भ्रमण करनेवाले प्राणीके आठ कर्म हैं। और वे विचारे जाते हैं; तो उपाधिरूप हैं; जैसे शुद्ध अग्निरूप क्रयका आर्द्र ( गीले) इन्धनले उत्पन्न धूम उपाधिरूप ही संभावित है; ऐसे ही सहज शुद्धभाव आत्मामें सब कर्म आत्मा के निजगुण न होने से आधिजनित ही हैं, इसलिये यद्यपि संसारी आत्मा उन कर्मोंसे युक्त है;
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