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________________ द्रव्यानुयोगतर्कणा [ ८३ तथापि उसको जब उन कर्मोंसे अयुक्त (रहित ) विचारा जाता है; तो वह सिद्ध ही है; तात्पर्य यह कि-संसारी जीवके कर्मरूप उपाधिभाव है; वह विद्यमान होते भी विवक्षित न किया जाय और उन कर्मोंसे ढके हुये भी जो बान, दर्शन चारित्ररूप सहजस्वभाव हैं; उनको वाह्य में प्रकट रूपपनेसे कहें तब नित्य शुद्ध पर्यायार्थिक नामक पंचम भेदकी भावना सिद्ध होती है ।। ६॥ अथ पर्यायार्थिकस्य षष्ठभेदोपकीर्तन माह । अब पर्यायार्थिक नयके षष्ठ (छठे) भेदके निरूपणार्थ यह सूत्र कहते हैं । अशुद्धश्च तथानित्यपर्यायाथिकोऽन्तिमः । यथा संसारिणः कर्मोपाधिसापेक्षकं जनुः ॥७॥ भावार्थः-तथा अशुद्ध और अनित्य अंतिम पर्यायार्थिक है; जैसे संसारी प्राणीका जन्म इस संसारमें कर्मरूप उपाधिकी अपेक्षा रखता है ॥७॥ ध्याख्या । कर्मोपाधिसापेक्षोऽशुद्धो विनश्वरत्वादनित्यः । एवमनित्यमादों कृत्वा अशुद्धततो योजयित्वा पर्यायाथिकपदेन समुच्चार्यते तदा षष्ठोऽन्तिमोभेदोऽनित्याशुद्धपर्यायाथिको निष्पद्यते । अथ तस्योदाहरणमाह । यथा संसारिणः संसारबासिजनस्य जनर्जन्म कर्मोपाधिसापेक्षकं प्रवर्तते । जन्ममरणव्याधयो वर्तमाना: पर्याया अनित्या उत्पत्तिविनाशशालित्वात पुनरशुद्धा कर्मसंयोगजनितत्वात् । भवस्थितानां प्राणिनां भवन्तीति । अत एव मोक्षाथिनो जीवा जन्मादिपर्यायाणां विनाशाय ज्ञानादिना मोक्षे यतन्ते । तस्मात्कर्माण्यनित्यान्यशुद्धानि तैः सापेक्षकं जन्माद्यप्यनित्यमशुद्ध चेत्थं योजनया निष्पन्नो नयोऽपि “अनित्याशुद्धपर्यायार्थिकः कथ्यत इत्यर्थः ॥ ७ ॥ व्याख्यार्थः-कर्मरूप उपाधिके सापेक्ष होनेसे अशुद्ध, विनाशी होनेसे अनित्य यह नय है, इस प्रकार प्रथम अनित्यशब्दकी तथा पुनः अशुद्ध शब्दकी योजना करके पश्चात् पर्यायार्थिक शब्दके साथ उच्चारण करनेसे यह अन्तिम भेद अनित्य अशुद्ध पर्यायाथिक सिद्ध होता है। इसमें उदाहरण देते हैं; कि-जैसे संसारी जीवका जन्म कर्मरूप उपाधिके सापेक्ष है। भावार्थ-संसारो जीवोंके जन्म मरणरूप जो व्याधिये हैं; उनमें वर्तमान जो पर्याय है; वे अनित्य हैं; क्योंकि-इन पर्यायोंका स्वभाव उत्पन्न तथा विनाश होनेका है; और फर्मोंके संयोगसे उत्पन्न होते हैं। इस कारण वे पर्याय अशुद्ध भी हैं। इसीसे मोक्षार्थी जीव जन्म मरण आदि पर्यायांका नाश करने के अयं ज्ञान आदि द्वारा मोक्षके विषयमें प्रयत्न करते हैं। इस कारणसे कर्म अनित्य तथा अशुद्ध हैं; और उन कर्मोंकी अपेक्षा रखनेवाले जन्मआदि भी अशुद्ध हैं; और इस प्रकारको (अनित्य तथा अशुद्धकी) योजनासे सिद्ध हुआ जो नय है; वह भी अनित्य अशुद्ध पर्यायार्थिक कहा जाता है ॥७॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001655
Book TitleDravyanuyogatarkana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhojkavi
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1977
Total Pages226
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Religion, H000, & H020
File Size19 MB
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