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________________ द्रव्यानुयोगतर्कणा [४७ ऐसा कहा जाता है और वह ही मनुष्य जब तरुण हुआ तब अन्य माना जाता है अर्थात् यौवन अवस्थाको प्राप्त हुआ मनुष्य बालपनेसे भिन्न तरुण कहा जाता है सो यद्यपि बाल्य अवस्था तथा तरुण अवस्थाकृत उस मनुष्यमें भेद है तथापि देवदत्तपनेरूप मनुष्यपर्यायसे उसमें भिन्नता नहीं है, क्योंकि जो देवदत्त बालक था वह ही देवदच अब तरुण होगया परन्तु मनुष्यव्यवहारसे भिन्न नहीं, इस प्रकार यद्यपि बाल तरुण पर्यायसे वह भेदसहित है तथापि देवदत्तभावरूप व्यवहारसे भिन्न कदापि नहीं है अर्थात् देवदत्तभावसे अभेद सहित है, इस कारणसे एक ही देवदत्तमें बाल्यतारुण्यभावसे भेद तथा देवदत्तरूप मनुष्यपर्यायसे अभेद विना विरोधके है ऐसा तुम निश्चयसे जानो। ऐसा कहाभी है कि “मनुष्यमें वा पुरुष शब्दमें जन्मसे आदि लेकर मरणपर्यन्त उसके बाल्यावस्थाको आदि लेकर अनेक प्रकारके विकल्प (भेद) होते हैं, अर्थात् बाल्य, शैशव, किशोर, यौवन तथा जरा आदि अनेक भेद होते हैं तथापि देवदत्तादि नामरूप मनुष्यपर्यायसे अभेद ही है ॥१५॥ व्याख्या -अथ यत्र भेदो भवेत्तत्राभेदो न भवत्येव, भेदो व्याप्यवृत्तिरस्ति तत एतादृशीं प्राचीननैयायिकशङ्का निराकुर्वन्नाह । अर्थः-अब "जहां भेद रहता है वहां अभेद नहीं रहता, क्योंकि भेद व्याप्यवृत्ति है अर्थात् धर्मभेद प्रयुक्त धर्मीका भी भेद सिद्ध है" ऐसी प्राचीन नैयायिककी आशंका को निराकरण करते हुए उसके मतका उद्घाटन करते हैं। धर्मभेदो यदा ज्ञाने मिभेदो न दृश्यते । जडचेतनयोरेको धर्मो तद्भिन्नधर्मयोः ॥६॥ भावार्थः-यदि ज्ञानमें धर्म अर्थात् श्यामत्व रक्तत्व आदिका भेद भासता है और धर्मी घटका भेद नहीं दीख पड़ता है तो परस्पर भिन्न धर्मके धारक जड़ चेतन द्रव्यमें धर्मी द्रव्यका अभेद लेकर जड़ चेतन एक होजायगे ॥६॥ ब्याख्या । इह यदि ज्ञाने ज्ञानविषये श्यामो न रक्त इति श्यामत्वरक्तत्वधर्मयोर्मेदो भासते । परन्तु धर्मिणो घटस्य श्यामत्वे रक्तत्वे वर्तमानस्य भेदो भिन्नत्वं न भासत इत्थं प्रतिपादयसि तर्हि जडचेतनयोमिन्नधर्मयोधर्मी एकद्रव्यं नु भविष्यति । अथ च जाचेतनयोर्मेदो भासते तत्र जडत्वचेतनत्वधर्मयोरेव भेदोप्यस्ति । परन्तु जडचेतनद्रव्ययोमँदो नास्ति । एवमवस्यया धर्मिणः प्रतियोगित्वेनोल्लेखोऽपि स्थानद्वयेऽपि सदृशोऽस्ति । अथ च प्रत्यक्षसिद्धार्थे बाधकं तु नावतरत्येव । उक्त च नानुपलब्धाय न्यायः प्रवर्त्तते अपि तु संदिग्धेर्थे" इत्युक्तत्वात् । एवं धर्मभेदो अनुमवे तव भासते मिभेद न कथयसि तदा भिन्नधर्मयोर्जडचेतनयोरेको धर्मी अपि लभ्यत इत्यर्थः॥६॥ व्याख्यार्थः-यहांपर यदि ज्ञानके विषयमें अर्थात् अनुभव में श्याम घट रक्त नहीं है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001655
Book TitleDravyanuyogatarkana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhojkavi
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1977
Total Pages226
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Religion, H000, & H020
File Size19 MB
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