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________________ ४८ ] श्रीमद्रराजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् और रक्त घट श्याम नहीं है, इस प्रकार श्यामत्व तथा रक्तत्व धर्मका भेद ज्ञानमें भासता है, परन्तु श्यामत्व तथा रक्तत्व दोनों दशामें वर्तमान धर्मी घटकी भिन्नता नहीं भासती, ऐसा यदि तुम प्रतिपादन करते हो अर्थात् धर्मके भेदसे धर्मोका भेद नहीं मानते हो तो जड़ और चेतन जो भिन्न धर्म हैं उनका धर्मी एक द्रव्य निश्चयसे हो जायगा । कदाचित् कहो कि जड़ चेतनका जो भेद भासता है वहां जड़त्व और चेतनत्व इन दोनों धर्मों का ही भेद है परन्तु जड़, चेतन द्रव्योंका भेद नहीं है, इस प्रकार अवस्थासे धर्मीका 'प्रतियोगीरूपसे ( अर्थात् जड़ चेतन नहीं है और चेतन जड़ नहीं है ) उल्लेख ( कथन ) करनेपर भी जड़ चेतन तथा श्याम और रक्त घट भी सदृश हैं और प्रत्यक्षसिद्ध अर्थ में कोई बाधककाप्रसंग भी नहीं होता, क्योंकि अनुपलब्ध अर्थात अनुभव प्रमाणसे अप्राप्त वस्तुमें न्याय नहीं प्रवृत्त होता, किन्तु संदिग्ध वस्तुमें न्यायकी प्रवृत्ति होती है ऐसा कहा है, इस रीतिले धर्मका भेद आपके अनुभव में भासता है। धर्माका भेद तुम नहीं कहते हो तो भिन्न धर्मके धारक जड़ और चेतनका एक व प्राप्त होता है यह ही कारिकाका आशय है ||६|| भेदाभेदौ च तत्रापि दिशन् जैनो जयत्यलम् । रूपान्तरात्पृथग्रूपेऽप्यभेदो भुवि संभवेत् ॥७॥ भावार्थ - वहां भी भेद तथा अभेदका उपदेश करता हुआ जैनमत अतिशय करके सर्वोत्कृष्ट वर्तता है, क्योंकि रूपान्तर अर्थात् द्रव्यरूपसे पृथक् जो जीवादि भासते हैं वहां भी संसार में अभेदका संभव है ||७|| व्याख्या । च पुनस्तत्र जडचेतनयोर्मध्ये भेदाभेदौ कथयन् जैन एवं अलमत्यर्थं जयति सर्वोत्कृष्टत्वेन प्रवर्तते । कथं तद्यतो भिन्नरूपा ये जीवाजीवादयस्तेषु रूपान्तरद्रव्यत्वपदार्थत्वादिभ्यश्राभेदोऽपि जगत्यायाति । एतावता भेदाभेदयोः सर्वत्र व्यापकत्वं कथितम् । रूपान्तराद्रव्यत्वपदार्थत्वलक्षणाद्भिन्नरूपे जीवाजीवादिकेऽपि व्यापकत्वादभेदोऽपि भुवि जगत्यां संभवेदित्यर्थः ॥ ७ ॥ व्याख्यार्थ—फिर जहां जड़ चेतनमें नैयायिक भेदमात्र कहता है वहां भी जड़ तथा चेतनके मध्य में भेद अभेद दोनोंको कहता हुआ जैनमत ही अतिशयकर सर्वोत्कृष्टपसे वर्तता है सो कैसे कि भिन्न रूप जो जीव अजीव आदिक हैं उनमें रूपान्तर द्रव्यत्व पदार्थत्व आदिसे अभेद भी जगत् में आता है, इस कथनसे भेद अभेदके, सब जगह १ जब श्याम तथा रक्त इन अवस्थाओंका कथन होता है तब वहां "श्यामघटो रक्तो नास्ति" श्यामघट रक्त नहीं है और रक्त होनेपर "रक्तो घटः श्यामो नास्ति" रक्त घड़ा श्याम नहीं है ऐसा प्रतियोगीरूपसे धर्मी घटका भी मान होता है यह नैयायिकका आशय है । २ नैयायिकका अभिप्राय यह है कि जब धर्मका भेद है तब धर्मीका भेद अवश्य है, क्योंकि धर्मीके भेदार्थ ही धर्मका भेद है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001655
Book TitleDravyanuyogatarkana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhojkavi
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1977
Total Pages226
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Religion, H000, & H020
File Size19 MB
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