SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 70
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ द्रव्यानुयोगतर्कणा व्यापकत्व कहा अर्थात् तुम्हारे मतसे भिन्नरूप जीव पदार्थ हैं उनमें भी रूपान्तर अर्थात् द्रव्यत्व, पदार्थत्व लक्षणसे व्यापकता होने के कारण जगत्में अभेद भी संभव होता है ऐसा अर्थ है । भावार्थ-तुमने सर्वत्र धर्मभेदसे भेदको ही व्यापक कहा है परन्तु जीव और अजीव दोनों द्रव्य होनेसे द्रव्यत्वरूपसे हमारे मतमें जड़ चेतन में भी अभेद व्यापक होनेसे विद्यमान है। यद्यपि जड़त्व तथा चेतनत्व पर्यायरूपसे भिन्न हैं, परन्तु उन ही दोनों में व्यापक द्रव्यत्वसे अभेद' भी जगत्में संभव है ॥७॥ ___ यस्य भेदोऽप्यभेदोऽपि रूपान्तरमुपेयुषः। एवं रूपान्तरोत्पन्नभेदाच्छतनयोदयः ॥८॥ भावार्थ:-जिस वस्तुका भेद भासता है उसी वस्तुका रूपान्तरको प्राप्त होते हुए अर्थात् भेदयुक्त वस्तु जब दूसरे स्वरूपमें परिवर्तित हो जाती है तब, उसीका अभेद भी हो जाता है। एवं रूपान्तरसे अन्य रूपान्तरमें उत्पन्न भेद तथा पुनः उससे भी रूपान्तरमें अभेद इस रीतिसे अन्य अन्य उत्पन्न गुणपर्यायद्वारा जो भेदसे अभेद है उसहीसे सैकड़ों नयोंका उदय है ॥ ८॥ ध्याख्या । यस्य वस्तुनो भेदस्तस्यैव रूपान्तरमुपेयुष: रूपान्तरपहितस्याभेदोऽपि भवेद्यया स्थासकोश कुशूलादयो घटस्य भेाः मन्ति पुनस्त एव स्थासादयो मृद्रव्यविशिष्टानपितस्वपर्याया अभेता रूपानरसंयुक्तत्वादभेदाः, तेषामेव रूगन्तराद्ध दो मवेत् । यथा स्थासकोशकुशूलादिपर्यायविशिष्ट मददव्यत्वेन तस्यैव भेदः । एवमस्य भेदस्याभेदोऽस्ति यः स एव शतमख्यमूलनयाना हेतुरस्ति । यत्त मप्तनयानां ये समतसंख्यामिता भेक्षा जायन्ते ते चानयव रीत्या द्रव्यपर्यायस्यार्पणयानर्पणया च शतारनयचक्र ध्ययनमध्यगता: पुरामन् । ते चाधु द्वादशारनपकमध्ये विधिविधिविधिरित्यादिरीत्या एककस्मिन्नयान्तरे द्वादश दादश भदा: सम्व न्ति । अतः सम्यगुक्तपाठपठितररिकलनाप्रसिद्धिमवधार्य मङ्गयोजना विधेयेत्यर्थः । यस्य भेदोऽस्ति तस्यैव रूपान्तरेणाभेदोऽप्यस्ति तस्यैव भेदः पुनस्तस्याभेद एवं शतनयावतारः ॥ ८॥ व्याख्यार्थः-जिस वस्तुका तुमको वर्तमान पर्यायको लेकर भेद भासता है वही वस्तु जब रूपान्तर सहित होजाती है तब उसका अभेद भी होजाता है। जैसे निज निज पर्यायसे योजित स्थास, कोश तथा कुशूल आदि सब घटके भेद हैं, पुनः वे ही स्थास कोश कुशूल आदि जब अपने २ पर्यायसे न योजित किये जांय अर्थात् पर्यायकी विवक्षा न को जाय तो मृत्तिकारूा द्रव्यसहित होनेसे अथवा केवल मृत्तिकारूकी विवक्षा १ पर्यायासे पिंड कुशूल घटादिका भेर रहते भी द्रव्यम्वरूप सर्वत्र अनुगत होनेसे पिंह कुशूलादिमें भेद नहीं है, नैयायिक भी पृथिवी जलादिके परस्पर भेद रहते भी नौ (९) द्रव्योमें द्रव्यत्व एक हो मानते हैं और प्रमेयत्वादि धर्मसे तो पदार्थका अभेद मानते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001655
Book TitleDravyanuyogatarkana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhojkavi
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1977
Total Pages226
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Religion, H000, & H020
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy