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________________ ५० ] श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् करनेसे अभिन्नरूप हैं अर्थात् उनका भेद नहीं है, क्योंकि अब रूपान्तरसंयुक्त' होगये अब पुनः उनहीका रूपान्तर होनेसे पुनः भेद भी हो जाता है, जैसे स्थास कोश कुशूल आदि पर्यायसहित मृत्तिकाद्रव्यत्वसे उसीका भेद है । इस प्रकार इस भेदका जो अभेद है वह ही अभेद शतसंख्याक ( सौ १००) मूल नयोंका कारण है । और जो नैगम संग्रह आदि सात नयोंके सातसौ (७००) भेद होते हैं वह सब भेद भी इसी रीतिसे द्रव्य पर्यायके अपंण तथा अनर्पणसे अर्थात् कदाचित् द्रव्यार्थिक योजनासे और कदाचित् उसकी अविवक्षा करके पर्यायकी योजनासे शतारनयचक्राध्ययनके मध्यगत पूर्वकालमें थे वे ही अब द्वादशारनयचक्र के मध्य में “विधिर्विधिर्विधिः" इत्यादि रीति से एक एक नयके वीचमें बारह बारह भेद होते हैं, इसलिये सम्यक् प्रकारसे कथित पाठमें पढी हुई संख्याकी प्रसिद्धिको अवधारण कर भंगोंकी योजना करनी चाहिये । तात्पर्य यह कि जिसका पर्याय आदिकी अपेक्षासे भेद है उसका पुनः रूपान्तरमें प्राप्त होनेसे अभेद और पुनः उस भेदका अभेद एवं शत (१००) नयका अवतार होता है ॥ ८ ॥ व्याख्या । अथ ते नयभेदाश्र्चिकीर्षिता अतस्तानेव दर्शयन्नाह । व्याख्यार्थ - यहां उन नयोंके भेद करनेकी इच्छा की इसलिये अब उनही भेदोंको दर्शाते हुए अग्रिम सूत्र कहते हैं । तथा क्षेत्रादिभिः सप्तभङ्गीकोटिः प्रजायते । संक्षेपादिह बोधाय सप्तभङ्गी प्रतायते ॥ ९ ॥ भावार्थ:- उसी प्रकार सप्तभंग भी क्षेत्र कालादिकी अपेक्षासे अवान्तर भेद प्रभेद आदिके निरूपणसे कोटि (करोड) भङ्ग होजाते हैं, परन्तु यहां संक्षेपसे बोध होनेकेलिये केवल सप्तभङ्गीका विस्तार करते हैं ॥ ९ ॥ व्याख्या । यथा द्रव्यादिविशेषेण भंगा जायन्ते तथैव क्षेत्रादिविशेषेणापि भंगा अनेके संभवन्ति । यतः स्वतो विवक्षितो घटो द्रव्यमस्पापेक्षया क्षेत्रादिघटः परद्रव्यमिति । एवं प्रत्येक प्रत्येकं सप्तमङ्गोऽपि कोटिशो निष्पद्यन्ते । तयारि लोकप्रसिद्धया य: कुम्बुग्रीवादिपर्यायोपेतो घटो द्रव्यं वर्त्तते तस्यैव स्वतस्त्वमङ्गीकृत्य स्वरूपेणास्तित्वं पररूपेण नास्तित्वमित्यवधार्य तसभङ्गी व्याकुरुते । तथा हि स्वद्रय क्षेत्र कालभावापेक्षया घटोऽस्त्येव । १ । परद्रव्यक्षेत्रकालमावापेक्षया घटो नास्त्येव |२| एकदा युगपदुमयविजया घटोऽवाच्य एवं एकशब्देन पर्यायद्वयं मुख्यरूपेण वक्तुमशक्यत्वात् |३| एकोंऽशः स्वरूपेण विवक्ष्यतेऽपरोंऽशः पररूपेण विवक्ष्यते तदा अस्ति नास्ति घटः |४| एकोऽशः स्वरूपेणापरोंऽशो युगपदुभयरूपेण विवक्ष्यते तदा घटोऽस्ति परमवाच्य इति 1५। एकोंऽशः पररूपेणापरोंऽशो युगपदुभयरूपेण विवक्ष्यते तदा घटो नास्त्यवाच्य इति । ६ । एकोडशः स्वरूपेणे कोंडशः परखरेणैवांशो युगपदुभयरूपेण विवक्ष्यते घटोsस्ति नास्त्यवाच्य इति ॥७॥ तदा १ यहां "रूपान्तरसंयुक्त" इस पदसे दूसरे आकार में परिणत होनेसे तात्पर्य है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001655
Book TitleDravyanuyogatarkana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhojkavi
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1977
Total Pages226
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Religion, H000, & H020
File Size19 MB
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