________________ 212 श्रीमद्रराजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् आदिमेन समायुक्ता धर्मादीनां तु षोडश / स्वभावाः संभवन्त्येव पूर्वोक्तानां प्रसंगतः // 14 // भावार्थः-निकाले हुए छह स्वभावोंसे प्रथम जो बहुप्रदेशस्वभाव है उस सहित धर्म, अधर्म और आकाश द्रव्यके सोलह सोलह स्वभाव होते हैं, क्योंकि ऐसा पहले कह आये हैं // 14 // व्याख्या / आदिमेन बहुप्रदेशस्वमावेन समायुक्ता अन्यपञ्चवजितास्तदा षोडश स्वभावाः धर्माधर्माकाशास्तिकायानां भवन्ति / यत “एकविंशति भावा: स्युर्जीवपुद्गल योर्मता: / धर्मादीनां षोडश स्युः काले पञ्चदश स्मृताः" इत्यादि / // 14 // व्याख्यार्थः-जब भाव निकाले हुए छह भावोंमेसे प्रथम बहुप्रदेशस्वभावसे सहित और शेष पाँच भावोंसे रहित हुए तो सब सोलह स्वभाव हुए। ये सोलह सोलह स्वभाव धर्मास्तिकायके, अधर्मास्तिकायके और आकाशास्तिकायके होते हैं। क्योंकि “जीव और पुद्गल 21 भाव हैं, धर्म, अधर्म, आकाश द्रव्यके सोलह सोलह भाव हैं; कालमें पन्द्रह भाव माने गये हैं / ऐसा पूर्वपाठ है / / 14 / / / एवं प्रमाणस्य नयस्य बोधादिमान्स्वभावान्परिभाव्य चित्ते / आप्तकमाम्भोजप्रसत्तिलब्धमानन्दरूपं परमं श्रयन्ताम् // 15 // भावार्थ:-हे भव्यजीवो ! इस प्रकार प्रमाण तथा नयके ज्ञानसे इन स्वभावोंको चित्तमें विचारके श्रीजिनेन्द्र के चरणकमलोंके प्रसादसे प्राप्त जो आनन्दरूप ज्ञान है उसका आश्रय करो // 15 // व्याख्या / अनया दिशा प्रमाणस्य स्वपरव्यवसायिज्ञानस्य, नयस्य प्रमाणेन निर्णीतार्थस्यैकांशपाटकवचनं नयस्तस्य. बोधादनमवादिमान स्वभावान चित्ते मनसि परिभाध्य पोलोच्यासस्य श्रीजिनस्य क्रमी पादौ तावेवाम्भोज कमलं तस्य प्रसत्या प्रसादेन लब्धं प्राप्तमानन्दरूपं स्वानुभवरूपं परमं ज्ञानं श्रयतां सेवन्तामिति / मोजेति सन्दर्भकत र्नामापि // 15 // इति द्रव्यानुयोगतकंणाव्याख्यायां कृतिश्रीभोजसागरनिमितायां द्वादशोऽध्यायः // 12 // व्याख्यार्थः-भो भव्यजनो ! इस प्रकार अपने तथा परके व्यवसायात्मक ज्ञानरूप प्रमाणके और प्रमाणसे निश्चित अर्थके एक अंशके प्रतिपादक वचनरूप नयके अनुभवसे इन स्वभावोंको मनमें विचार कर, श्रीजिनेन्द्रके चरणरूप कमलके प्रसादसे प्राप्त जो अपने अनुभवरूप ज्ञान है उसका सेवन करो / यहाँ "भोज" यह श्लेषसे ग्रंथकारका नाम भी है // 15 // इति श्रीठाकुरप्रसादशास्त्रिविरचितमाषानुवादसमलङ्कृतायां द्रव्यानुयोग तर्कणायां द्वादशोऽध्यायः // 12 // Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org