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श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् योगशास्त्रान्तरश्लोके मतमेतदपि श्रुतम् ।
लोकप्रदेशेऽप्यणवो भिन्ना भिन्नास्तदग्रता ॥ १५ ॥ भावार्थ:-योगशास्त्रके अन्तर्गत श्लोकमें हमने यह भी सुना है; कि-लोकाकाश प्रदेशमें जो भिन्न भिन्न कालाणु स्थित हैं; वह भिन्न स्थिति कालद्रव्यकी प्रधानता है ॥१५॥
____ व्याख्या । योगशास्त्रान्तरश्लोक एतदपि मतं श्रुतं दिगम्बरमतेऽपि अन्तरश्लोकव्याख्यानमपीष्टमस्ति । यतो-लोकप्रदेशेऽपि अणवः भिन्ना भिन्ना: अणवस्तन्मूख्यत्वमापादयन्ति । लोकप्रदेशे भिन्ना मिन्ना: कालाण. वस्त एवं मुख्यकाल इति व्यवहारः । तथा च तत्पाठ: "कोकाकाशप्रदेशस्थाः भिन्नाः कालाणवस्तु ये । भावानां परिवर्ताय मुख्यः कालः स उच्यते । १। इति" अस्य मावार्थ:-लोकाकाशे यावन्तः प्रदेशास्तेषु तिष्ठन्तीति लोकाकाशप्रदेशस्था भिन्नाः पृथक पृथक् एकनभोदेशे एक इत्थं सर्वत्र सर्वे ये कालाणवः सन्ति त एव तावन्तः कालाणव इति । तु पुनर्भावनां परिवर्ताय "नूतनं कृत्वा जीणं करोति जीणं कृत्वा नूतनं करोति" एवं भावनां परिवर्ताय वर्तते स एव मुख्यः सर्वप्रधानपदार्थः काल उच्यत इत्यर्थः ॥ १५ ॥
व्याख्यार्थः-योगशास्त्रके अन्तर्गत श्लोकमें यह भी मत सुना है; और दिगम्बरमतमें इस योगशास्त्रान्तरश्लोकका व्याख्यान भी इष्ट है; क्योंकि-योगशास्त्र में यह श्रवण किया कि-लोकाकाशके प्रदेशमें जो पृथक् ( भिन्न भिन्न ) कालाणु स्थित हैं; वह कालाणु कालद्रव्यकी मुख्यताका प्रतिपादन करते हैं; अर्थात् लोकप्रदेशमें जो भिन्न भिन्न कालाणु हैं; वह ही मुख्यकाल हैं; ऐसा व्यवहार है। सो ही उस योगशास्त्रका पाठ है; कि-"लोकाकाश प्रदेशस्था भिन्नाः कालाणवस्तु ये । भावनां परिवर्ताय मुख्यः कालः स उच्यते । १।" भावार्थ इसका यह है; कि-लोकाकाशके जितने प्रदेश हैं; उन सब प्रदेशोंमें जो रहते हैं; उनको लोकाकाशप्रदेशस्थ रहते हैं; लोकाकाशप्रदेशस्थ जो भिन्न भिन्न अर्थात् एक आकाशके प्रदेशमें एक इस प्रकार सब लोकाकाशके प्रदेशोंमें जो सब कालाणु हैं; वह उतने ही हैं; जितने कि-आकाशके प्रदेश हैं । और जो भावों( पदार्थों )के परिवर्तनके लिये अर्थात् पदार्थको नूतन (नया) करके जीर्ण (पुराना) करता है; और जीर्ण करके नूतन करता है" इस प्रकारका जो पदार्थाका परिवर्तन है; उसकेलिये जो वर्तना है; वही मुख्य अर्थात् सर्वप्रधान पदार्थ काल कहागया है । इस प्रकार अर्थ है ॥ १५ ॥
पुनस्तदेव चर्चयन्नाह । फिर उसी कालकी चर्चा करते हुए कहते हैं ।
प्रचयोर्ध्वत्वमेतस्य द्वयोः पर्याययोर्भवेत् ।
तिर्यक्प्रचयता नास्य प्रदेशत्वं विना क्वचित् ॥ १६ ॥ भावार्थ:-इस कालद्रव्य के पूर्वापर दो पर्यायोंमें ऊर्वताप्रवय होता है; और प्रदेशरहितपनेसे तिर्यक्प्रचय कहीं भी नहीं होता ॥ १६ ॥
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