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श्रीमद्राजचन्द्र जैनशास्त्रमालायाम्
दिग्दर्शनमात्र हैं; इनसे अधिक और भी भेद होते हैं । और यदि उन दशको उपलक्षणमात्र नहीं करें तो प्रदेशार्थनय किस स्थान में चरितार्थ ( अन्तर्भूत ) हो यह विचारना चाहिये तथा यदि इस देवसेनजीके ग्रन्थ में दश भेद उपलक्षणसहित न हों तो प्रदेशार्थनयका किस नयमें अन्तर्भाव होता है; यह कहो । पुनः इस प्रदेशार्थनयका वर्णन सूत्रमें भी है; जैसे “द्रव्यार्थिकप्रदेशार्थनय" इत्यादि । तथा जैसे कर्मरूप उपाधिकी अपेक्षा रखनेवाले जीवभावको ग्रहण करानेवाला द्रव्यार्थिकनयका उपदेश किया है; इसी रीतिसे जीवके संयोगकी अपेक्षाका धारक जो पुद्गलभाव है; उसका ग्रहण कराने वाला नय भी भिन्नरूपतासे कथन करनेके योग्य ही हैं; और जब जीवसंयोगापेक्षपुद्गल भावग्राहक नय माना जायगा तब इसी प्रकार अन्य भी अनेक नय होंगे। और प्रस्थ आदि दृष्टांतसे नैगम आदि नयोंके अशुद्ध १ अशुद्धतर २ अशुद्धतम ३ शुद्ध ४ शुद्धतर ५ और शुद्धतम आदि जो अनेक भेद होते हैं; उन भेदोंका संग्रह कहां किया जायगा अर्थात् तुमको उपलक्षणमात्र ही इन दश भेदोंको मानना चाहिये अन्यथा पूर्वोत भेदों का संग्रह न होगा । अब यदि ऐसा कहो कि - " इन पूर्वोक्त भेदोंके संग्रहके अर्थ हमने उपचार किया है; और इसी कारण उपचारसे वह उपनय होते हैं" तो अपसिद्धान्त होगा अर्थात् सिद्धान्तकी हानि होगी। क्योंकि - अनुयोगद्वार में उनको नयोंके भेद दिखलाये गये हैं । इसलिये यही पक्ष दृढ किया जाता है; कि जो उपनय कहे गये हैं; वह नहीं है; अर्थात् व्यवहार नैगमआदि नयोंसे जुदे नहीं हैं; और तत्वार्थसूत्रमें व्यवहारका लक्षण भी यही कहा है, कि जो बहुधा उपचारसे पूर्ण हो अर्थात् जिसमें उपचार अधिक हो वह तथा संक्षिप्त अक्षरोंमें विस्तारसहित अर्थका धारक हो और प्रायः लौकिक हो वह व्यवहार है ||२०||
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व्यवहारे समायान्ति तथैवोपनया अपि । न चेत्प्रमाणमप्यत्रोपप्रमाणत्वमाश्रयेत् ॥२१॥
भावार्थ:-- और वह उपनय भी व्यवहारमें ही गर्भित हो जाते हैं । यदि ऐसा न हो तो प्रमाण भी उपप्रमाणताका आश्रय करे ||२१||
व्याख्या । एवं सति नयभेदान् यद्य पनयान् कृत्वा मनुते तर्हि स्वपरव्यवसायिज्ञानं प्रमाणमित्येत-ल्लक्षणेन लक्षितस्य ज्ञानरूपप्रमाणस्याप्येकदेशो मत्यादिरथवा तद्दशोऽवग्रहादिः सोऽप्युपप्रमाणमिति पृथग्भेदो भविष्यति । तस्मान्नयोपनयप्रक्रिया शिष्याणां बुद्धिद्वन्द्वनमात्रेव ज्ञातव्या ॥ २१ ॥
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निश्चयाद्व्यवहारेण कोपचारविशेषता । मुख्यवृत्तिर्यदेकस्य तदान्यस्योपचारता ॥२२॥
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