SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 197
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १७६ ] श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् एतन्मतद्वयं धर्मसंग्रहिण्यां च भाष्यके । अनपेक्षितद्रव्याथिकमते तस्य योजना ॥१३॥ भावार्थः-कालके विषयमें यह दोनों मत धर्मसंग्रहणी में तथा भाष्य में प्रतिपादित हैं; और अनपेक्षित द्रव्यार्थिकनयके मतमें इसकी योजना होती है ।। १३ ।। व्याख्या । एतन्मतद्वयं धर्मसंग्रहिण्या श्रीहरिमद्रसूरिणा व्याख्यातम । तथा च तग्दाथा "जं वत्तणाई रूवो कालो दब्बस्स चेव पज्जाओ। मो चेतवो धम्मो कालमव जस्म जोण लोएत्ति ।१।" एवमेतन्मतद्वयमलं श्रीहरिमद्रसुरिसंमतधर्मसहिनीसूत्रोक्त ज्ञेयम । तया च एतन्मतद्वयं भाष्यके श्रीतत्त्वार्थभाष्येऽपि वाचकैस्तथैव प्रणीतमस्ति । तथा च तद्ग्रन्य:- कालश्वेके' इति वचनाहितीयमतं श्रीतत्वार्थव्याख्याने समथितम् । पुनस्तस्य कालस्यानपेक्षितद्रव्यायिकनयना योजना युक्तिश्च भवति । तथा हि स्थूललोकव्यवहारसिद्धोऽयं कालोऽपेक्षारहितश्च ज्ञेयः । अन्यथा वर्तनापेक्षाकारणत्वेन यत्कालद्रव्यं साधितं तत्पूर्वापरादिव्यवहारविलक्षणपरत्वापरत्वादिनियामकत्वेन दिग्द्रव्यमपि सिद्ध स्यादिति । अथ च “आकाशमवगाहाय तदनन्या दिगन्यथा । तावप्येवमनुच्छेझत्ताभ्यां चान्यदुदाहृतम् १" इति सिद्धसेनदिवाकरकुतनिश्चयद्वात्रिंशिकायं विमृश्याकाशादेव दिक्कार्य प्रसिद्धयतीति । इत्यङ्गीकुर्वता कालद्रव्यं कार्यमपि कथंचित्तत एवोपपत्तिः स्यात् । तस्मात्कालश्चेत्येके इति सूत्रमनपेक्षितद्रव्यापिकतने वेति सूक्ष्मदृष्टया विभावतीयम् ॥१३॥ व्याख्यार्थः-यह दोनों मत श्रीहरिभद्रसूरीके मान्य जो धर्मसंग्रहणी सूत्र है; उसमें कहे हुवे जानने । उस धर्मसंग्रहणीसूत्रकी गाथा यह है; "ज' वत्तणाई रूवो कालो दब्बस्स चेव पज्जाओ । सो चेव तवो धम्मो कालस्सव जस्स जोण लोएत्ति । १ । और यह ही दोनों मत श्रीतत्त्वार्थाधिगमभाध्यमें श्रीसिद्धसेनजोने भी इसी प्रकार कहे हैं । और तत्त्वार्थसूत्र यह है "कालश्चेत्येके" (काल भी द्रव्य है; ऐसा एक आचार्य कहते हैं ) इस सूत्रमें एके इस पदमें दूसरा मत इस सूत्रके व्याख्यानमें समर्थित कियागया है । और उस कालकी योजना अनपेक्षित द्रव्यार्थिकनयके मतमें होती है। सो ही दिखाते हैं; कि-यह काल स्थूल ( माटा ) जो लोकयवहार है; उससे सिद्ध है; और अपेक्षारहित है। यदि ऐसा न हो तो जैसे वर्तनाका अपेक्षारूप कारण होनेसे काल द्रव्यको सिद्ध किया उसी प्रकार काल जिस पूर्वापरको साधता है; उससे विलक्षण (भिन्न) परत्व अपरत्वआदि व्यवहारका नियामक होनेसे दिशानामक द्रव्य भी सिद्ध हो जाय । और "आकाश अवगाहन होनेके लिये है; और दिशा उस आकाशसे भिन्न नहीं है; यदि ऐसा न हो और काल तथा आकाशसे भिन्न दिशारूप द्रव्यका उदाहरण दें तो काल और आकाश इन दोनोंके अनुच्छेदसे अर्थात् काल भी रहेगा आकाश भी रहेगा और यह दिशा एक और हो जायगी ऐसे पृथक् द्रव्य सिद्ध होगा । इस (१) इस गाथाका भावार्थ समझमें नहीं आया । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001655
Book TitleDravyanuyogatarkana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhojkavi
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1977
Total Pages226
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Religion, H000, & H020
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy