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________________ द्रव्यानुयोगतर्कणा पुनस्तदेवाह । पुनः उसी कालद्रव्य के विषय में कहते हैं । आहुरन्ये भचक्रस्य विश्वेचारेण या स्थितिः । कालोsपेक्षाकारणं च द्रव्यमित्यपि पञ्चमे ॥ १२ ॥ भावार्थ:- और अन्य आचार्य कहते हैं; कि—संसारमें ज्योतिश्चक्र के संचार से जो स्थिति है; वह काल है, और कितने ही कालको अपेक्षाकारण करते हैं, तथा कितने ही कालको द्रव्य कहते हैं ॥ १२ ॥ Jain Education International व्याख्या । अन्ये आचार्या एवं कथितवन्तो भचक्रस्य ज्योतिश्चक्रस्य चारेण या विश्वे स्थितिरवस्थाविशेषः स काल इत्यभिधीयते । तथा च वर्तुलाकारं ज्योतिश्वक तस्य चारेण परत्वापरत्वनवपुराणादिभावस्थितिहेतुः तस्यापेक्षाकारणं मनुष्यलोके ह्यर्थस्य सूर्य क्रियोपनायक द्रव्य चारक्षेत्र प्रमाणमेवोपकल्पनं घटते । तत एतादृशं कालद्रव्यं कथ्यते । तत एव भगवत्यङ्ग "कईणं भंते दब्बा पन्नत्ता । गोयमाद्दब्बं पण्णत्ता । वं जहा धर्माच्छिकाए जाव अद्धासमये ।" एतद्वचनमस्ति तस्य निरुपचरितव्याख्यानं घटते । तथा च वर्त्तनापर्यायस्य साधारणापेक्षा न कथ्यते तदा तु गतिस्थित्यवगाह्नापेक्षा साधारणकारणत्वेन धर्माधर्मास्तिकाय सिद्धी बाती तत्राप्यनाश्वास आयाति । अथ च “अर्थयुक्त्या ग्राह्यमस्ति तस्मात्केवलमाज्ञयैव ग्राह्यस्ति परन्तु कथं संतोषघृती भवेताम् ॥ १२ ॥ [ १७५ व्याख्यार्थः- - अन्य आचार्योंने इस प्रकार निरूपण किया है, कि -ज्योतिश्चक्र के संचारसे जो संसारमें स्थिति अर्थात् अवस्थाविशेष है, वही काल इस प्रकार कहा जाता है । सोही स्पष्ट करके दिखाते हैं, कि गोलाकार जो ज्योतिश्चक्र है, उसके संचारसे परत्व अपरत्व तथा नवीन पुराणआदिरूप जो पदार्थों की स्थिति है, उसका हेतु अर्थात् अपेक्षा कारण काल है । क्योंकि - मनुष्यलोक में सूर्यकी जो गतिरूपा क्रिया है, वही पदार्थोंकी नायिका है, अर्थात् उन २ पर्यायोंमें पदार्थोंको प्राप्त करनेवाली सूर्यकी क्रिया है, और यह कल्पना जहाँतक द्रव्योंका संचार क्षेत्र है, अर्थात् जहांतक द्रव्योंका संचरण होता है, asiaक कालद्रव्यकी कल्पना घटित होती है । अतएव श्रीभगवत्यंगसूत्रमें भी यह वचन है । " कईणं भंते दब्बापन्नत्ता गोयमाद्ददब्बं पणत्ता तं जहा धमत्थिकाए जाव अद्धासमये" अर्थात् हे भगवन् ! द्रव्य के हैं, तब स्वामीने कहा कि - हे गौतम! ६ द्रव्य हैं, वह जैसे धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाश, जीव, पुद्गल और काल । उसका यह निरुपचरित व्याख्यान संगत होता है । और यदि वर्त्तनापर्यायके साधारण अपेक्षा न कहें तो गति और स्थितिके अवगाहन में अपेक्षारूप साधारण कारणतासे धर्मास्तिकाय तथा अधर्मास्तिकाय सिद्ध होजांय अविश्वाम होता है, और यह बात अर्थयुक्त ग्राह्य है। उससे केवल योग्य है, परन्तु संतोष और धैर्य कैसे होवं ॥ १२ ॥ करने परन्तु वहां भी आज्ञासे ही ग्रहण For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001655
Book TitleDravyanuyogatarkana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhojkavi
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1977
Total Pages226
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Religion, H000, & H020
File Size19 MB
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