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श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् ही क्रियामें कालके एक ही समयमें विवक्षासे उत्पन्न हो रहा है, उत्पन्न हुआ, नष्ट हो रहा है; तथा नष्ट हुआ इत्यादि व्यवहार है; इसी पूर्वोक्त रीतिसे सिद्धान्त मतमें भूतकालादि प्रयोगकी संभावना हो सकती है। और अन्यके मतमें तो इस समय यह घट नष्ट हुआ यह व्यवहार प्रथम क्षणमें सर्वथा नहीं हो सकता क्योंकि-अभी (प्रथम क्षणमें ) नश्यमान क्रिया हो रही है, तब उस नाशानुकूल क्रियाका भूतकाल कैसे बोधित हो सकता है । और नयका भेद माननेसे तो हो सकता है; अर्थात् भविष्य कालकी अपेक्षासे उसीमें भूतत्वके आरोपसे नश धातुके भूतकालके प्रयोगमें कोई अनुपपत्ति नहीं है। यहांपर हमारी संमति ऐसी है, कि-स्वकीय अधिकरणीभूत जो क्षण उस क्षणका व्यापक तथा स्वके अधिकरणमें जो ध्वंसक्षणकी अधिकरणता तादृश अधिकरणत्वरूप ही अनुत्पन्नत्व है। यहांपर स्वशब्दसे नश्यमानानुकूल क्रियाका ग्रहण है; अतः जिस समयमें नश्यमानरूप क्रिया हो रही है; उस क्षणकी तो अनुत्पत्तिव्यापिका है; और उसी क्रियाका अधिकरणीभूत जो ध्वंस है; उसके अधिकरणका भी क्षण है; क्योंकि-उसी क्षणमें ध्वंसानुकूल क्रिया भी हो रही है; अत एव स्वाधिकरणक्षणत्वव्यापक तथा स्वाधिकरणीभूत ध्वंसाधिकरणत्व स्वरूपता अनुत्पन्नत्वमें चली गई। यही विषय इस गाथामें कहा है; जैसे उत्पद्यमान काल में उत्पन्न होता है; उत्पन्न हुआ नष्ट होता है; ऐसे दो भेद कहे हुये त्रिकाल विषयको विशेषित करते हैं ॥१२॥
उत्पत्तिर्न भवेदने तदोत्पन्नं च तद्भवेत् ।
यथा नाशं विना नष्टं प्रथमं किं न रोचते ॥ १३ ॥ भावार्थ:-प्रथम द्वितीयआदि क्षणमें उत्पत्ति नहीं हुई और उत्पन्न हुआ ऐसा व्यवहार यदि तुम भविष्यकी अपेक्षासे मानते हो तो नाशके विना भी नष्ट हुआ यह व्यवहार तुमको क्यों नहीं रुचता ॥ १३ ॥
व्याख्या। उत्पत्तीति-यदा अग्रे द्वितीयादिक्षणे उत्पत्तिर्न भवेत्तदा तबटादिकं द्वितीयादिक्षणेऽनुत्पन्नत्वं भवेत् । यथा च प्रथमध्वंसेन नाशेन विना अनष्टमविनष्ट यदि कथ्यते। इत्ययं तर्कस्तव किं न रोचते । यस्मात्प्रतिक्षणोत्पादनाशी परिणामद्वारा माननीयौ। अथ च द्रव्यार्थादेशेन द्वितीयादिक्षणे या त्पत्तिव्यवहारः कथ्यते तदा नाशव्यवहारोऽपि तथा भवितु युज्यते। तथा च क्षणान्तर्भावेन द्वितीयादिक्षण उत्पत्तिरपि प्रापयितु युक्ता भवेत्, अकल्पिता अनुत्पन्नता न भवेत् । तथापि प्रतिक्षणमुत्पत्ति विना परमार्थतोऽनुत्पन्नतार्थता युज्यत इत्यर्थः ॥ १३ ॥
___व्याख्यार्थः--यदि द्वितीयादि क्षणमें उत्पत्ति नहीं होती तो वह घटआदि उस द्वितीयआदि क्षणमें अनुत्पन्न होते हैं; और जैसे नाशके विना अनष्ट हुआ ऐसा यदि कहा जाय तो यह तर्क तुमको क्यों नहीं रुचता। क्योंकि--प्रतिक्षगमें उत्पाद नाश परि
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