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________________ द्रव्यानुयोगतर्कणा त्पत्तिविशिष्टस्य व्यवहारो व्ययस्य चेत् । नाशनिष्ठोद्भवं तत्र व्यवहारेऽप्युरीकुरु ॥१२॥ भावार्थ:-यदि उत्पत्तिसहित नाशका व्यवहार होता है; तो उस व्यवहार में नाशनिष्ठ उत्पत्ति होती है; ऐसा मानो ॥ १२ ॥ [ १४७ व्याख्या । यद्यु ुत्पत्तिविशिष्टस्य व्ययस्य व्यवहारोऽस्ति चेत्तदा व्यवहारेऽपि तत्र नाशनिष्ठोद्भवमसद्विशिष्टमुत्पत्तित्वमुरीकुरु इति । भावार्थस्त्वयं यद्य त्पत्तिधारानाशविषये भूतादिप्रत्ययो न कथ्यते अथ च नश्धातोरर्थे नाशोत्पत्तिद्वयं गृहीत्वा तदुत्पत्तिकालत्रयस्यान्वयसंमवश्व कथ्यते । एवं च कथयतां नश्यत्समयेन नष्ट इत्ययं प्रयोगो नो जायते तत्कथं तस्मिन्काले नाशोत्पत्त्योरतीतत्वं नास्तीत्येवं समर्थता व्यवहारस्य यदि क्रियते भवद्भिस्तदा व्यवहार उत्पत्तिक्षणसंबंधमात्रमेव कथयत । तत्र प्रागभावध्वं मता कालत्रयरूपात् कालत्रय - स्यान्वयसमर्थेनं कुरुत । अथ च यद्य ेवं विचारयिष्यथ घटस्य वर्त्तमानत्वादिकेऽपि नाशवर्तमानत्वादिकेऽपि नाशवर्त्तमानादि व्यवहारो न जायते । किञ्च कियानिष्ठापरिणामरूपवर्त्तमानत्वमतीतं गृहीत्वा नश्यति नष्ट उत्पन्न एतद्विभक्तिव्यवहारसमर्थनं करणीयम् । अतएव क्रियाकालयोगपद्यविवक्षया उत्पद्यमान उत्पन्नः विगच्छद्विगतमित्यनया दिशा सैद्धान्तिक प्रयोगः संभवेत् । परमते त्विदानीं ध्वस्तो घट इति आद्यक्षणो व्यवहारः सर्वथा न घटमाटीकते, नयभेदे तु संभवेत, यथात्रास्मकं संमतिः । स्वाधिकरण क्षण त्वव्यापकस्वाशिकरणक्षण ध्वं साधिकरणादिकत्वमनुत्पन्नत्वम्, "उपजमाणकालं उपरणंति विगयं विगच्छं । भेदवियं पनवंतो तिकालविसयं विसेसेइ ॥ १२ ॥ व्याख्यार्थः– यदि उत्पत्तिसहित नाशका व्यवहार होता है; तो उसी व्यवहार में नाशनिष्ठ जो उद्भव ( उत्पत्ति ) है; अर्थात् असद्विशिष्ट जो उत्पत्ति है; उसको स्वीकार करो । भावार्थ यह है; कि - उत्पत्ति धारारूप नाशविषय में भूतकालादि प्रत्यय ( अनुभव ) नहीं कहते हो और नश धातुके अर्थ में नाश तथा उत्पत्ति दोनोंका ग्रहण करके उस नाकी उत्पत्ति कालत्रयके साथ अन्वय ( सत्व ) का संभव कहते हो तब ऐसा कहनेवालोंको नाश होते हुये समयके साथ नष्ट हुआ ऐसा प्रयोग नहीं होता । क्योंकि - उस काल में नाश तथा उत्पत्तिकी अतीतकालता नहीं है; ऐसी समर्थता यदि आप व्यवहारकी करते हो तो व्यवहार में उत्पत्ति क्षणकी संबन्धमात्रा ही कहो | तब वहांपर प्रागभावध्वंसता कालत्रयरूपसे कालत्रयके अन्वय ( सत्व ) का समर्थन करते हो । और यदि ऐसा विचार करते हो कि घटके वर्त्तमानत्वादिमें नाशके वर्त्तमानत्वादिका व्यवहार नहीं होता किन्तु क्रियानिष्ठ जो अपरिणामरूप वर्त्तमानत्व तथा तत्व है उसको लेकर नष्ट होता है, नष्ट हुआ, तथा उत्पन्न होता है; उत्पन्न हुआ इस रीति से इस नश धातुके आगे वर्त्तमानके तथा भूत कालके प्रत्ययोंको व्यवहारका समर्थन करना चाहिये । इसीसे अर्थात् एक कालमें दूसरे कालकी अपेक्षासे भूत कालादि मान कर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001655
Book TitleDravyanuyogatarkana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhojkavi
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1977
Total Pages226
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Religion, H000, & H020
File Size19 MB
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