SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 55
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३४ ] श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् इस प्रकार व्यवस्थासहित व्यवहार होता है, वह गुण और पर्यायोंके अभेदसे है इस कारण इन गुण पर्यायोंके विद्यमान होनेपर ही होता है। जैसे ज्ञानादि गुण पर्यायोंसे अभिन्न जीव है और रूपादि गुण पर्यायोंसे अभिन्न अजीव द्रव्य है। यदि ऐसा न हो तो गुण पर्यायोंसे रहित सामन्य द्रव्यसे मनुष्यजीव, देवजीव, मुक्तजीव, तथा रक्त घट, पीत घट इत्यादि विशेषसंज्ञा न हों। इस कारणसे द्रव्य, गुण, पर्याय यह तीन नाम हैं, परन्तु स्वस्वभाव आदि एकपनेका व्यवहार ही तीनोंमें रहता है, क्योंकि परिणतिमें एकरूप है। परिणमन जैसे आत्मा द्रव्य है, उसके ज्ञानादि गुण परिणाम हैं। यहाँ ज्ञानादि गुणसहित द्रव्यमें ही आत्मा यह व्यवहार होता है और ऐसे ही परिणामी वस्तुओंमें उनके जो पर्याय हैं उन पर्यायोंसे युक्तमें द्रव्य व्यवहार होता है, यह सब एक ही है । क्योंकि रत्न, उसकी कान्ति तथा ज्वरको नाश करनेवाली उसकी शक्ति, यह तीनों भी परिणतिमें एक रूप हैं । उस ही प्रकार द्रव्य गुण तथा पर्याय ये एकरूप ही हैं, इससे परिणतिमें एकरूप होनेसे द्रव्यादिक तीनों एक प्रकारवाले हैं ॥ ६॥ पुनरभेदं नाङ्गीकुर्वन्ति । तेषु एव दोषसम्भवमाह । फिर भी जो अभेदको नहीं मानते हैं उनमें ही दोषकी उत्पत्तिको कहते हैं । न ह्य तेषां यदाभेदस्तदा कार्य कुतो भवेत् । नोत्पद्यते ह्यसद्वस्तु शशशृंगवदुच्चकैः । भावार्थः-यदि इन द्रव्यादिकोंका अभेद नहीं है तो इनसे कार्य कैसे होता है ? क्योंकि जैसे खरगोशके (खरगोशके) सींग उत्पन्न नहीं होते हैं वैसे असत् पदार्थ उत्पन्न नहीं होना चाहिये ॥७॥ व्याख्या । यदि एतेषां द्रव्यादिनामभेदो न तदा कार्य कुतो भवेत् । अपि तु द्रव्यगुणपर्यायाणामभेदो नास्ति तदा कारणकार्ययोरपि अभेदो न भवेत् । तदा च मृत्तिकाविकारणेभ्यो घटादिकार्य कथं निष्पत्स्यते, कारणे कार्यशक्ती सत्यामेव कार्योत्पत्तिनियामकत्वमसदविद्यमानं वस्तु न निष्पद्यते निश्चयेन शशशङ्गवत् । यथा शविषाणमित्यसद्वस्तु असत्परिणतितत्त्वात् कार्य निष्पत्यमाव एव दृश्यते अयमत्र भावः । यदि कारणमध्ये कार्यसत्ताङ्गीक्रियते तदा अभेदः महजमेव आगतः ॥ ७ ॥ व्याख्यार्थः-यदि इन द्रव्य, गुण तथा पर्यायोंका अभेद नहीं है तो कार्य कैसे उत्पन्न होता है ? अर्थात् अभेदके विना कारणसे कार्य नहीं हो सकता, और यदि द्रव्य गुण तथा पर्यायोंका अभेद नहीं है, तो कारण कार्यका भी अभेद नहीं होना चाहिये । और जब कारण कार्यका अभेद न हुआ तो मृत्तिकादिरूप कारणोंसे घट आदि कार्य कैसे उत्पन्न होंगे ? क्योंकि कारणमें कार्य शक्तिको सत्ता ही कार्यकी उत्पत्तिमें नियामिका है, क्योंकि जो पदार्थ जहाँ अविद्यमान है वहाँसे वह पदार्थ कदापि उत्पन्न नहीं हो सकता है, यह Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org,
SR No.001655
Book TitleDravyanuyogatarkana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhojkavi
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1977
Total Pages226
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Religion, H000, & H020
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy