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द्रव्यानुयोगतकणा
[५३ भवति । तस्मादेकदा नयद्वयार्थविवक्षयावाच्य इति । ४ । ॥ ११ ॥
___व्याख्यार्थः-यदि एक कालमें ही दोनों नयोंसे दोनों अर्थोकी विवक्षा उत्पन्न हो अर्थात् एक समयमें पर्यायार्थिक तथा द्रव्यार्थिक इन दोनों नयोंसे पर्याय तथा द्रव्य रूप दोनों अर्थोके कथनकी इच्छा हो तब तो पदार्थ अवक्तव्य दशाको ही प्राप्त होता है; क्योंकि एक शब्दसे एक ही क्षणमें द्रव्य पर्याय अथवा स्वरूप पररूपादि अर्थका कथन असंभव है, सांकेतिक शब्दसे जो संकेतरूप एक अर्थ है वह ही उस शब्दसे निरूपणीय (कथनयोग्य) होता है, परन्तु दो अर्थरूप शब्दका तो कथन करनेको वह शब्द असमर्थ ही है । और पुष्पदन्त आदि शब्द भी एक ही उक्तिसे अर्थात् समूहालम्बन ज्ञानसे सूर्य चन्द्रकी व्यक्तिको कहते हैं, परन्तु भिन्न भिन्न अर्थात् पृथक् पृथक् सूर्य तथा चन्द्रादिरूप अर्थ कहनेको असमर्थ हैं अर्थात् पृथक् पृथक् दो अर्थ एक शब्दसे एक ही क्षणमें कहने को अशक्य हैं। और यहां तो उभय अर्थात् पर्यायार्थिक तथा द्रव्यार्थिक दोनों नयोंके प्रतिपाद्य पर्याय तथा द्रव्यरूप अर्थ मुख्यता ( प्रधानता ) से भिन्न भिन्न उक्तिसे उच्चारण करने के योग्य हैं और एक ही कालमें उन दोनों अर्थोके उच्चारण करनेकी योग्यता तो यत्नसे भी नहीं होती, इस कारणसे एक कालमें एक शब्दसे दो नयके अर्थकी विवक्षासे अवाच्य ही है । ४ । ॥११॥
अथ पञ्चम मङ्गोल्लेखं करोति । अथ पश्चम भंगका प्रतिपादन करते हैं ।
पर्यायार्थिकसंकल्पात्पश्चाद्वयविवक्षितात् ।
भिन्नमवाच्यं वस्त्वेतत्स्यात्कारपदलाञ्छितम् ॥१२॥ भावार्थः--प्रथम पर्यायार्थिक नयके संकल्प (विवक्षा) करके पश्चात् दोनोंकी विवक्षा होनेसे यह पदार्थ स्यात्कार इस पदसे चिन्हित अर्थात् 'स्यात् भिन्न है और स्यात् अभिन्न है अवाच्य है। तात्पर्य यह कि प्रथम पर्यायार्थिक नयको विवक्षा की और पश्चात् द्रव्यार्थिक पर्यायार्थिक इन दोनों नयोंकी विवक्षा की तब वह वस्तु पर्यायकी अपेक्षासे कथंचित् भिन्न है और उभय नयकी अपेक्षासे कथंचित् अवाच्य है । ५ ॥१२॥
व्याख्या । प्रथम पर्यायार्थकल्पना तत एकदोमयनयार्पणं क्रियते तदा भिन्नमवक्तव्यमिति स्यात्कथंचिद्भिन्नमवक्तव्यमिति पञ्चममङ्गोल्लेखः ॥ १२ ॥
१ यह "यात्" शब्द संभावनार्थक कथंचित् वाचक अव्यय है, जिसके पूर्व लगाया जाता है उस वस्तुको किसी अपेक्षासे कहता है।
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