SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 221
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २०० ] श्रीमद्राजचन्द्रजैनशाखमालायाम् व्याख्यार्थः-एकस्वभावके विना सामान्यका अभाव हो जावेगा और सामान्यके अभावसे विशेषकी प्राप्ति नहीं होती, ऐसेही अनेक स्वभावके विना सर्ववर्तिनी सत्ता भी नहीं घटित होती। इसलिये एक तथा अनेक ये दोनों स्वभाव वस्तुके अंगीकार करने चाहिये । ऐसेही विशेषके विना सामान्यरूप नहीं । अर्थात् विशेषके विना सामान्य और सामान्यके विना विशेष नहीं है । एकके विना अनेकता नहीं है और अनेकके विना एकत्व नहीं है ॥२६॥ संज्ञासङ्घयादिभेदेन भेदस्वभावता द्वयोः । अभेदवृत्तिलक्षणं यत्तदेवाभेदभावनम् ॥२२॥ भावार्थः-संज्ञा तथा संख्या आदिके भेदसे गुण गुणी आदिके भेद स्वभाव है। और अभेदवृत्ति जो लक्षण है वही अभेद-भावना है ॥ २२ ॥ व्याख्या । द्वयोरिति गुणगुणिनोः पर्यायपर्यायिणोः कारककारकिनोः संज्ञासंख्यादिभेदेन कृत्वा भेदस्वभावता ज्ञातव्या । यदभेदवृत्तिलक्षणं भेदरहितवृत्ते लक्षणवत्त्वं तदेवाभेदस्वभावोऽभेदभावनं ज्ञेयम ॥२२॥ व्याख्यार्थः-सूत्रमें "द्वयोः" यह जो पद है इससे गुण गुणी, पर्याय पर्यायी, तथा कारक और कारकी (जिसमें कारकका व्यवहार होता है उसे कारकी कहते हैं) इन दो दो के संज्ञा, संख्या आदिके द्वारा भेद स्वभावपना जानना चाहिये । और भेदवृत्तिसे रहित जो लक्षण है उस लक्षणसहितको ही अभेदस्वभाव जानना चाहिये ॥२२॥ भेदं विनकतामीषो ततो व्यवहृतिक्षयः। अनभेदात्कथं बोधो ह्यनाधारवतो योः ॥२३॥ भावार्थ:-भेदस्वभावके बिना इन सब द्रव्य, गुण तथा पर्यायोंकी एकता हो जायगी, और सबकी एकता होनेसे व्यवहारका अभाव होगा तथा अभेदके बिना आधारशून्य दोनों गुणपर्यायोंका बोध भी कैसे होगा ।।२३॥ ___व्याख्या । भेदं विना भेदस्वभावं विना आमीषां सर्वद्रव्यगुणपर्यायाणामेकता ऐक्यं स्यात् । तेन कृत्वा इदं द्रव्यम, अयं गुणः, अयं पर्यायः, इति व्यवहारस्य विरोधो जायते । अन्यच्चाभेदस्वमावो यदि न कथ्यते तदा अनाधारवतोनिराधारयोदयोर्बोधः कथं भवेत् । आधाराधेययोरभेदं विना द्वितीयः संबन्धो न घटते । अत्र प्रवचनसारगाथा “पविमत्तपदेसत्त पुत्तमिदि सासणं हि वीरस्स । अणतमत्तमावो ण तद्भवं भवदि कधमेगं । १।" ॥ २३ ॥ व्याख्यार्थः-भेद स्वभावके विना इन सब द्रव्य, गुण तथा पर्यायोंकी एकता होजायगी और सबकी एकता होनेसे यह द्रव्य है, यह गुण है, तथा यह पर्याय है इत्यादि व्यवहारका विरोध होता है और यदि अभेद स्वभाव नहीं कहते हैं तो आधाररहित दोनोंका बोध भी कैसे होवे क्योंकि आधार तथा आधेयके अभेद विना दूसरा संबन्ध Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001655
Book TitleDravyanuyogatarkana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhojkavi
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1977
Total Pages226
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Religion, H000, & H020
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy