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________________ द्रव्यानुयोगतर्कणा [ २०१ घटित नहीं होता है । इस विषयमें प्रवचनसारकी गाथा भी है। उसका भाव यह है कि प्रविभक्तप्रदेशता है वही पृथक्त्व है ऐसा श्रीवीरभगवान्का उपदेश है ओर जो अन्यत्व है वह अतद्भाव है अर्थात् उसका स्वभाव नहीं है। क्योंकि वह उसमें नहीं होता इसलिये दोनों एक नहीं है अर्थात् गुण गुणी रूपतासे एकता नहीं है ।। २३ ॥ अवस्थितात्मरूपस्याविर्भावाद्भव्यमिष्यते । सदाश्रयन्परं भावमभवनितरः स्वतः ॥ २४ ॥ भावार्थः-अवस्थित द्रव्यभावके अविर्भावसे भव्यस्वभाव है तथा सदा परभावका आश्रय करता है वह स्वभावसे इतर (भिन्न ) अर्थात् अभव्य स्वभाव है ।। २४ ॥ व्याख्या । अवस्थितात्ममावस्यानेककार्यकारणशक्तिकं यदवस्थितद्रव्यं तस्यावस्थितद्रवस्याविर्भावात्क्रमिकं विशेषान्ताविर्भावादमिव्यङ्गय मव्यं मध्यस्वभावमिष्यते । अथ सदा त्रिकालं परं भावं परद्रव्यानुगतित्वं श्रयन्परस्वभावेन परिणमन्यः स्यात्तत्स्वतः स्वमावत इतरोऽभव्यस्वभाव इति कथ्यते ।१०। 'अण्णोण्णं पविसंता दिता ओगासअण्णमण्णस्स । मेलंताविय णिच्चं सगसगमावं ण विजहंति । १।' इति भावस्वभावार्थो ज्ञेयः ॥ २४ ।। व्याख्यार्थः-अनेक कार्यकारणकी शक्तियुक्त जो अवस्थित द्रव्य है उस अवस्थित (विद्यमान ) द्रव्यके क्रमसे जो आविर्भाव उससे जानने योग्य भव्यस्वभाव माना गया है ।९। और सदा (त्रिकालमें) जो परस्वभावसे परिणमन करता है वह स्त्र (अपने ) भावसे भिन्न अर्थात् अभव्य स्वभाव कहा जाता है । १० । और परस्सर एक दूसरेके प्रदेश में प्रवेश करते हुए तथा परस्पर अवकाशको देते हुए एवं नित्य मिलते हुए भी द्रव्य अपने अपने भावको नहीं छोड़ते हैं । यह भावस्वभावका अर्थ जानना चाहिये ॥ २४ ॥ शन्यत्वं कूटकार्येण भव्यभावं विना भवेत् ।। अभव्यत्वं विना द्रव्यान्तरता द्रव्ययोगतः ॥ २५ ॥ भावार्थः-भव्यस्वभावके विना असत्यकार्यके साथ योग होनेसे शून्यवत्ता होती है । और अभव्य स्वभावके बिना द्रव्यके संयोगसे अन्य द्रव्यकी उत्पत्ति होती है ।। २५ ।। ___ व्याख्या । भव्यमावं विना मध्यस्वभावमन्तरेण कूटकार्येणासत्यकार्येण योगे शून्यत्वं शून्यवत्वं भवेत् । किन्तु परभावे भवेन्नहि स्वभावे च भवेत्तदा भव्यत्वं स्यादिति । अथ पुनरमण्यत्वं विना अमव्यस्वमावानङ्गीकारे द्रव्ययोगतः द्रव्यस्य संयोगाद्रव्यान्तरता द्रव्यान्यत्वं जायते । यस्माद्धर्माधर्मादीनां जीवपदगलयोरेकावगाहनावगाढकारणेन कार्यसंकरोऽमव्यस्वभावेनैव न भवेदिति । तत्तद्रव्याणां तत्तत्कार्यदेतताकल्पनमप्यमव्यत्वस्वभावमितमेवास्ते । आत्मादेः स्ववृत्त्यनन्तकार्यजननशक्त्या भव्यः, तत्तत्सहकारिसम. वधानेन तत्तत्कार्योपधायकताशक्तिश्च तथा भव्यतेति । तथा भव्यतयवानतिप्रसङ्ग इति तु हरिभद्राचार्यः ॥२५॥ ___ व्याख्यार्थः-भव्य स्वभाव के बिना असत्यकार्यका योग होनेसे शून्यवान्पना होवे । तात्पर्य यह कि परभावमें नहीं होवे और स्वभावमें हो तब भव्य भाव होता है। और अभव्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001655
Book TitleDravyanuyogatarkana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhojkavi
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1977
Total Pages226
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Religion, H000, & H020
File Size19 MB
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