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________________ द्रव्यानुयोगतर्कणा [ १५९ स्तिकाय (धर्मद्रव्य) आदिकी उत्पत्ति नियमसे परप्रत्ययसे अर्थात् धर्मास्तिकाय आदिके आधारभूत गमन आदिमें परिणत जो जीव पुद्गल हैं, उनके निमित्तसे होती है ऐसा कथन किया गया है, और जो उभय (स्वप्रत्यय तथा परप्रत्यय) से जन्य होता है, वह एक जन्य भी होता है, इस वाक्यसे उस धर्मास्तिकायादिके उत्पादके निजप्रत्ययसे जन्यता भी कहनी योग्य है, क्योंकि - निश्चय तथा व्यवहारनयसे यह निश्चय होता है । "आकाशास्तिकाय, धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय इन तीनोंके नियमसे परप्रत्ययजन्य उत्पाद है" इस संमतिग्रंथकी गाथामें वृत्तिकारने यह पूर्वोक्त अर्थ आकार प्रश्लेषण करके वचनान्तरसे किया है । उस अर्थका ही अनुसरण करके यहां भी लिखा गया है । इसलिये धर्मास्तिकाय आदिका उत्पाद नियमसे परप्रत्यय जन्य ही है । और बह भी अपने आधारभूत गति आदि में परिणत जीव पुद्गलआदिके निमित्तसे है । और जो उभयजनित है, वह एकजनित भी होता है। और इसके जो निजप्रत्ययता कही है, वह अन्तर्नयवादसे कही है। ऐसी भावना समझनी चाहिये ॥ २४ ॥ अथ नाशस्वरूपमाह । अब नाश (व्यय) का स्वरूप कहते हैं । नाशोऽपि द्विविधो ज्ञेयो रूपान्तरविगोचरः । अर्थान्तर गतिश्चैव द्वितीयः परिकीर्तितः ॥ २५ ॥ भावार्थ:--उत्पादके समान नाश भी दो प्रकारका है, उनमें एक रूपान्तर विगोचर और दूसरा अर्थान्तरगति नामसे कहा गया है ।। २५ ।। व्याख्या | नाशोऽपि द्विविधो ज्ञातव्यः । एकस्तत्र रूपान्तरविगोचरः रूपान्तरपरिणामः । द्वितीयस्तु अर्थान्तरगतिरर्थान्तरमा वगमनं चेति । भावार्थस्त्वयम, "परिणामो ह्यर्थान्तर, गमनं न च सर्वथा व्यवस्थानं न च सर्वथा विनाशः, परिणामस्तद्विदामिष्ट: । १ । सत्पर्यायेण विनाशः, प्रादुर्भावोऽसता च पर्ययतः । द्रव्याणां परिणामः प्रोक्तः खलु पर्ययनयस्य । २ । एतद्वचनं संमतिप्रज्ञापनावृत्तिविषयी । कथंचित्सद्र पान्तरं प्राप्नोति सर्वथा न विनश्यति यत्तद्द्रव्यार्थिकनयस्य परिणामत्वं कथितम् । पूर्वं सत्पर्यायेण विनश्यति, उत्तरात्पर्यायेणोत्पद्यते यत्तत्पर्यायार्थिकनयस्य परिणामत्वं कथितम् । एतदभिप्रायं विचारयतामेकरूपान्तरपरिणामविनाश:, एकश्र्वार्थान्तरगमनविनाशः इत्थं विनाशस्यापि भेदद्वयं संपन्नम् ||२५|| " व्याख्यार्थः - नाश भी दो प्रकारका जानना चाहिये। उनमेंसे प्रथम रूपान्तर विगोचर अर्थात् एक रूपसे रूपान्तर ( दूसरे रूपमें ) परिणाम है, और द्वितीय अर्थान्तरगति अर्थात् एक पदार्थसे दूसरा पदार्थ हो जाता है । भावार्थ यह है । एक पदासे अन्य पदार्थता में गमन हो जाता है, सो परिणाम है, और सर्वथा विद्यमानता अथवा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001655
Book TitleDravyanuyogatarkana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhojkavi
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1977
Total Pages226
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Religion, H000, & H020
File Size19 MB
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