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________________ १५.] श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् नयके अभिमत जो क्षणिक पर्याय प्रथम द्वितीय समयआदिके व्यवहारका कारण है; उसके द्वारा जो उत्पाद है; वह सब एकत्वउत्पाद समझना चाहिये ॥२२॥ अत्र न. किंचिद्विवादस्तत्र श्लोकमाह । यहां कुछ विवाद नहीं है; इस विषयमें श्लोक कहते हैं। स्कन्धहेतु विना योगः परयोगेण चोद्भवः । क्षणे क्षणे च पर्यायाधस्तदैकत्वमुच्यते ॥२३॥ भावार्थः-स्कंध हेतुके विना जो संयोगे है, परके योगसे जो उत्पत्ति है; तथा क्षणिक पर्यायसे जो उत्पाद है; वह सब एकत्व उत्पाद है ॥ २३ ॥ व्याख्या । स्कन्धहेतुं विना यः संयोगः, परयोगेन धर्मास्तिकायादिना यश्चोत्पादः, तथा च क्षणिकपर्याये प्रथमद्वितीयादिद्रव्यव्यवहारहेतवस्तद्वारा य उत्पादः, तत्सर्वमेकत्वं कथ्यते तत्र न कोऽपि विसंवाद इति ॥ २३ ॥ व्याख्यार्थः-स्कंधकी हेतुताके बिना जो संयोग है, परयोग जो धर्मास्तिकाय आदिक हैं; उनसे जो उत्पाद है, तथा प्रथम द्वितीयआदि द्रव्य व्यवहारके कारण जो क्षणिक पर्याय हैं; उनके द्वारा जो उत्पाद है; वह सब विनसाका भेदरूप एकत्वउत्पाद कहा जाता है । इसमें किसी प्रकारका विवाद नहीं है ॥ २३ ॥ पुनर्भेदं कथयन्नाह । फिर उत्पादके ही भेदको कहते हुए अग्रिम सूत्र कहते हैं । उत्पादो ननु धर्मादेः परप्रत्ययतो भवेत् । निजप्रत्ययतो वापि ज्ञात्वान्तर्नययोजनाम् ॥२४॥ भावार्थ:-धर्मास्तिकायआदिकी उत्पत्ति परप्रत्ययसे होती है; अथवा आन्तरिक नययोजनाको जानके निजप्रत्ययसे भी होती है ॥२४॥ व्याख्या। ननु धर्मादेरुत्पादः परप्रत्ययो भवेत्, अपि पुनर्निजप्रत्ययाद्भवेदन्तर्नययोजनां ज्ञात्वा इति । भावार्थस्त्वयम् -धर्मास्तिकायादीनामुपादो नियमेन परप्रत्ययः स्वोमटम्यगत्यादिपरिणत जीवपुदगलादिनिमित्त उक्तः । य उमयजनितस्स चैकजनितोऽपि भवेत् । ततस्तस्य निजप्रत्ययतापि कथयितु युक्ता निश्चयव्यवहारावधारणात् । अयमर्थः “आगासाइयाणं तिण्हं परपचओ नियया" इति संमतिगाथायामकारप्रश्लेषणया वचनान्तरेण कुतोऽस्ति वृत्तिकारेण तमर्थमनुस्मृन्येहापि लिखितोऽस्ति । तस्माद्धर्मास्तिकायादीनामूत्पादो नियमात्परप्रत्यय एव । सोऽपि स्वोपष्टम्यगत्यादिपरिणतजीवपुद्गलादिनिमित्तः, उभय जनितोऽप्येकजनितोऽपि स्यात् । तस्य च निजप्रत्ययताप्यन्तर्नयवादेनाक्तास्ति भावना चेत्थं ज्ञेया ॥२४॥ व्याख्यार्थः-धर्मास्तिकायआदिकी उत्पत्ति परप्रत्ययसे होती है; और आभ्यन्तरिक (अन्दरूनी) नय योजनाको समझके निज प्रत्ययसे होती है । भावार्थ यह है; कि-धर्मा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org -
SR No.001655
Book TitleDravyanuyogatarkana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhojkavi
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1977
Total Pages226
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Religion, H000, & H020
File Size19 MB
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