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________________ द्रव्यानुयोगतकणा [ १५७ व्याख्या । संयोगं विना विश्रसोत्पादो यद्भधेत्तदेकत्वं ज्ञेयम् । तदेवैकत्वं द्रव्यांशेन द्रव्यविमागेन सिद्धता नाम उत्पन्नत्वं ज्ञेयम । यथा द्विप्रदेशादिस्कन्धविमागेनाणोः परमाणोद्रं व्यस्योत्पादः, तथा आवरणक्षये कर्मविभागे जाते सति सिद्धस्य सिद्धपर्यायस्योत्पाद इति । “अवयवसंयोगेनैव द्रव्यस्योत्पत्तिर्भवति परन्तु विभागेन द्रव्यस्योत्पत्तिर्न भवति" इत्यमेकेनैयायिकादयः कथयन्ति । तेषां मत एकतन्त्वादिविभागेन खण्डपटोत्पत्तिः कथं जाघटीति प्रतिबन्धककालमावस्यावस्थितावयवसंयोगस्य हेतुताकल्पने महागौरवात् । तस्मात् कुत्रचित्संयोगात् कुत्रचिद्विभागाद्रव्योत्पादकता मन्तव्या । तदा विभागजपरमाणूत्पादोऽप्यर्थतः सिद्धः स्यात् । संमतिशास्त्र इत्थं सूचितमस्ति । तदुक्तम् “दब्बंतरसंयोगादि केईदवियस्यबिति उप्पायत्था । कुशलविभागजायण इच्छंति अणुहुणुएहिं दब्बे आ ।१। द्वत्ति अणुयत्ति दविए मोततो असुणविभत्तो । तं पिहु विभागजाणिओ अणुत्तिजाओ अणू होइ ।२।" आभ्यांगाथाम्यां भावार्थोऽवधार्यः । यथा परमाणोरुत्पाद एकत्वजन्यस्तथा येन संयोगेन स्कन्धो न निष्पद्यते एतादृशो धर्मास्तिकायादीनां जीवपुद्गलयोस्संयोगस्तद्वारा यश्च संयुक्तद्रव्योत्पादोऽसंयुक्तावस्थविनाशपूर्वकः, तथा ऋजुसूत्रनयाभिमतो यश्च क्षणिकपर्यायप्रथमद्वितीयसमयादिव्यवहारहेतुस्तद्वारा यश्चोत्पादश्च तत्सर्वमेकत्वं ज्ञेयम् ॥ २२ ॥ व्याख्यार्थः-संयोगके विना जो विश्रसानामक उत्पाद है; वही एकत्व है । और उसी एकत्वको द्रव्यांशसे अर्थात् द्रव्यके विभागसे सिद्धता अर्थात् उत्पन्नत्व जानना चाहिये । जैसे दो प्रदेशआदि स्कंधके विभागसे परमाणु द्रव्यका उत्पाद है; तथा आवरणक्षय अर्थात् कर्मोंका विभाग ( नाश ) हो जानेपर सिद्ध पर्यायका उत्पाद है । अवयवोंके संयोगसे ही द्रव्यकी उत्पत्ति होती है; परन्तु विभागसे उत्पत्ति नहीं होती" इस प्रकार कोई कोई नैयायिकआदि कहते हैं । उनके मतमें एक तंतुआदिके विभागसे खंडपटकी उत्पत्ति कैसे घटित हो सकती है। प्रतिबंधक काल भावको अथवा शेष अवस्थित अवयवसंयोगको कारणता माननेसे अतिगौरव है। इसलिये कहीं संयोगको कहीं विभागको द्रव्यकी उत्पत्तिमें कारणता माननी चाहिये । इससे विभागसे परमाणुकी उत्पत्ति भी अर्थसे सिद्ध हो गई । और संमतिशास्त्र में भी इसी प्रकार सूचित किया है; जैसे “कोई कोई द्रव्यान्तरके संयोगसे ही द्रव्यकी उत्पत्ति मानते हैं; और तर्कमें कुशल विद्वान् तो विभागसे भी द्रव्यकी उत्पत्ति चाहते हैं ।१॥ क्योंकि-अणु तथा द्वयणुक द्रव्योंसे भी अणु द्रव्योंमें उत्पत्ति मानी गई है। अतएव द्विप्रदेश अणु स्कंधके विभागसे अणुपरिमाण द्रव्यकी उत्पत्ति होनेसे अणुजन्य अणु होता है । २ ।” इन दोनों गाथाओंसे यह भावार्थे मनमें धारण करना योग्य है; कि-जैसे परमाणुकी उत्पत्ति एकत्व अर्थात् द्विप्रदेश स्कंधके विभागसे जन्य है; वैसे ही जिस संयोगसे स्कंध नहीं सिद्ध होता है; ऐसा जो धर्मास्तिकायादिकोंका और जीव तथा पुद्गलका संयोग है; और उसके द्वारा जो संयुक्त द्रव्यको उत्पत्ति है; वह असंयुक्त अवस्थाके विनाशपूर्वक है; तथा ऋजुसूत्र Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001655
Book TitleDravyanuyogatarkana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhojkavi
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1977
Total Pages226
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Religion, H000, & H020
File Size19 MB
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