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श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् सचित्ताः १ तथा मिश्रपरिणताश्च ते ये जीवेन पुद्गला मुक्ताः कलेवरादयः २ पुनश्च विश्रसापरिणताः स्वभावेन परिणताः । यथाभ्रन्द्रधनुरादयः ३ एवं च सत्यत्र विश्रसाख्यस्य भेदस्य स्वभावजनितस्य द्वविध्यं प्रदर्शितम । अचेतनस्कन्धजन्यसमुदायाख्यः प्रथमस्तत्र सचित्तमिश्रजन्यैकत्वप्रकारकशरीरादिवर्णादिसुनिर्धारसंज्ञो द्वितीयः । अत्रायं विशेषः स्वाभाविके परिणमनेऽचित्तपुद्गलैरेवायत्नसाध्यव्यवहार उपदिष्ट इह तु द्वयमपि ॥२१॥
व्याख्यार्थः-दूसरा सचित्तमिश्रसे उत्पन्न हुआ विश्रसाउत्पाद है; शरीरवर्णादिका निर्धार इसीसे समझना चाहिये । वर्णादिकोंके जो पुद्गल हैं; वह सचित्त हैं । परिणतिसे परिणमनको प्राप्त हुए उन उन आकारके वर्णादिरूप पुद्गलोंका एकत्व प्रकार अर्थात् एकतारूपसहित सुनिर्धार होता है; अर्थात् अनेक प्रकारके वर्णआदिरूप मिले हुए तथा उत्पादकी धारासे परस्पर पिण्डरूप हुए अवयव स्वरूप और अवयवीके धर्मसे देह रूप देखनेमें आने योग्य आकारके धारक परमाणवोंके, जो शरीरआदि पिण्डोंका अतिशयरूपसे निर्धार अर्थात् शरीरके रूपकी अवस्था होती है; सो सचित्तमिश्रसे उत्पन्न एकत्व प्रकारक दूसरा विश्रसाउत्पाद है । यही विषय प्रज्ञापना और स्थानाङ्ग शास्त्रमें कहा गया है; वह पुद्गल तीन प्रकारसे परिणत हैं; जैसे-प्रयोगपरिणत १ बिश्रपरिणत २ विश्रसापरिणत ३ इन तीनोंमें प्रथम जो प्रयोगपरिणत पुद्गल हैं; वह जीवके प्रयोगसे अर्थात् जीवके व्यापारसे संयुक्त शरीरादि सचित्त हैं । मिश्रपरिणत वह हैं; कि-जो पुद्गल जीवसे मुक्त हैं; जैसे कलेवरआदि । और विश्रसा परिणत पुद्गल वह हैं; जो स्वभावसे ही परिणत हैं; जैसे इन्द्रके धनुषआदि । इस प्रकारका सिद्धान्त होनेसे यहांपर स्वभावसे उत्पन्न होनेवाला जो विश्रसानामक भेद है; उसके दो प्रकार दिखाये । उनमें अचेतन स्कंध(अचेतन पुद्गलोंके समुदाय )से उत्पन्न समुदयनामक तो प्रथम भेद है; और सचित्तमिश्रसे उत्पन्न अर्थात् चेतनसहित पुद्गलोंसे मिलेहुए पुद्गलोंसे उत्पन्न एकत्व प्रकारका धारक शरीरआदिके वर्णआदिका निर्धारसंज्ञक द्वितीय भेद है । इन दोनोंमें यह विशेषता है; कि-स्वाभाविक परिणमनमें अचित्त (चेतनरहित) पुद्गलोंसे ही अयत्नसाध्य व्यवहारका उपदेश किया गया है, और एकत्विक विश्रसोत्पादमें सचित्त अचित्त दोनों प्रकारके पुद्गलोंसे साध्य व्यवहारका उपदेश है ॥२१॥
पुनर्भेदं दर्शयन्नाह । फिर भी उत्पादके ही भेदको दिखाते हुए अग्रिम सूत्र कहते हैं ।
यत्संयोगं विनैकत्वन्तद्रव्यांशेन सिद्धता ।
यथा स्कन्धविभागाणोः सिद्धस्यावरणक्षये ॥ २२ ॥ भावार्थ:-जो संयोगके विना ही विसाउत्पाद है; वह एकत्व है; और उसीको द्रव्यांशसे उत्पाद जानना चाहिये । जैसे द्विप्रदेशस्कंध के विभागसे अणुका उत्पाद होता है; और कर्मोंके विभागसे जीवके सिद्धता उत्पन्न होती है ।। २२ ।।
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