________________ 210 ] श्रीमद्रराजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् एकत्र निश्चितो भावः परत्र चोपचर्यते / उपचरितभावः स विननं नो परज्ञता // 10 // भावार्थः-एक स्थानमें निश्चित जो भाव है वह दूसरे स्थानमें उपचारमें लाया जाता है। इसीको उपचरित भाव कहते हैं। इसके विना परका ज्ञान नहीं हो सकता // 10 // ___व्याख्या / एकत्र निश्चितो भावः नियमितकस्थानस्य मावस्य परस्थानोपचरणेनोपचरतिस्वभावता जायते / स उपचरितस्वमावो यदा नाङ्गीक्रियते तदा स्वपरव्यवसायिज्ञानवानात्मा किमु कथ्यते / ततो ज्ञानस्य स्वविषयत्वं त्वनुषचरितमेवास्ते / अथ परविषयत्वं तु परापेक्षया प्रतीयमानत्वं, तथा परनिरूपितसंबन्धत्वेनोपचरितमस्ति / इत्थमुपचरितस्वभावता द्विप्रकारास्ति // 10 // व्याख्यार्थः-जो भाव एक स्थानमें निश्चित है अर्थात् जिस स्वभावकी सत्ता एक पदार्थमें नियमसे है उस स्वभावका जब अन्य स्थानमें उपचार ( आरोप ) करते हैं तब उसको उपचरित-स्वभावता हो जाती है। उस उपचरित स्वभावको यदि नहीं स्वीकार करें तो आत्मा अपने और परके( दोनोंके ) विषयमें व्यवसायात्मक ज्ञानका धारक है यह कैसे कहा जावे ? इस कारणसे यह सिद्ध हुआ कि ज्ञानके स्वविषयत्व अर्थात् अपना जो ज्ञान है वह तो अनुपचरित (उपचाररहित ) ही है और परकी अपेक्षासे जो जानता है वह परनिरूपित संबन्धसे उपचरित है / और इस प्रकार जो उपचरित स्वभाब है वह दो प्रकारका है / यही आगेके श्लोकमें कहते हैं // 10 // कर्मजः सहजश्चतो मूर्ताचेतनभावयोः / / जन्तोराछो द्वितीयोऽपि सिद्धस्य विमलात्मनः // 11 // भावार्थ:-एक कर्मजनित उपचरितभाव है और दूसरा सहज उपचरितभाव है / ये दोनों मूर्त तथा अचेतन भावमें होते हैं / और प्रथम भेद तो संसारो जीवके होता है और दूसरा निर्मल आत्माके धारक सिद्ध जीवोंके होता है // 11 // ___ व्याख्या / कर्मज एकः सहजो द्वितीय एतौ द्वौ भेदो मूर्तीवेतनमावयोः स्तः। तत्र पुद्गलसंबद्धस्य प्राणिनो मूर्त्तत्वमस्ति / अथ चाचेतनत्वमप्यस्ति तत्त् यजीवस्य कथ्यते प्रथमं तत्र तु गौर्वाहीक इति म्यायानुसरणेनोपचरितोऽस्ति कर्मजनितत्वोत् / तस्मादत्र यत्कर्मजनितोपचरितस्वभावत्वं तजन्तोद्वितीयोऽपि सहजोपचरितस्वमावोऽपि सिद्धस्य निर्मलस्य / परजत्वं तु तत्र किमपि कर्मोपाधिजमस्ति तन्न स्यात् तदुक्तमाचारसूत्रे "अकम्मस्स ववहारो ण विजइ कम्मणा उवाहि जायत्तिति" एवमेते दश स्वभावा नियतद्रव्यवृत्तयः सन्तीति // 11 // व्याख्यार्थः-प्रथम उपचरित स्वभाव कर्मसे उत्पन्न होता है और द्वितीय उपचरितभाव सहज (स्वाभाविक ) है। ये दोनों उपचरित भावके भेद मूर्त ओर अचेतनके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org