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________________ द्रव्यानुयोगतर्कणा [ 209 व्याख्या / स्वभावाद् योऽन्यथामाव: स विमावस्वभावः कथ्यते / इति तु महद्वयथारूपं लगति / एतच्च विमावस्वभावस्याङ्गीकरणं विना जीवस्य नानादेशादिकर्मोपाधिः कथं घटते / नानादेशाद्यनियतदेशकालादिविपाकिकर्मोपाधि वस्यालग्ना यूज्यते / तत उपाधिसंबन्धयोग्यानादिविभावस्वभाव इति // 8 // व्याख्यार्थः-निजस्वभावसे जो द्रव्यका अन्यथाभाव है उसको विभावस्वभाव कहते हैं / सो यह तो महाव्याधिरूप लगता है। और इस विभावस्वभावके अंगीकार न करनेसे जीवके नानादेशादि कर्मोपाधि कैसे बन सकती है ? तात्पर्य यह कि विभाव स्वभावके स्वीकार विना अनियत देश और काल आदिके संबन्धसे विपाकीभूत ( फल देने में अभिमुख ) जो कर्म हैं उन कर्मोंरूप जो उपाधि है वह जीवके साथ नहीं लग सकती। इस कारणसे उपाधिसंयोगके योग्य अनादि विभाव-स्वभाव भी मानना योग्य है // 8 // शुद्धो भावः केवलमन्यश्लोपाधिकः स्मृतः / शुद्ध विना न मुक्तिश्च विनाऽशुद्ध न लेपता // 6 // भावार्थः-केवल निजस्वरूप मात्रसे जो स्थिति है वह शुद्धभाव है और उपाधिसे उत्पन्न हुआ अशुद्ध भाव है / शुद्ध भावके विना मुक्ति नहीं होती और अशुद्ध भावके विना जीवके कर्मोंका बन्धन नहीं होता है // 9 // व्याख्या / केवलत्वं शुद्धो भावः, उपाधिभावरहितास्तविपरिणतत्वं शद्धस्वभावत्वम / अन्योऽशुद्धभाव औपाधिकः, उपाविजनितबहिर्भावपरिणमनयोग्यता गुद्वस्वभावता / यदि शुद्धभावाङ्गीकारत्वं न क्रियते तदा मुक्तिर्न घटते, पुनश्वाशुद्धभावाङ्गीकारत्वं न क्रियते तदा कर्मलेपो न घटते / अतएव शुद्धस्वभावस्य कदाप्यशुद्धता न स्यादशुद्धस्वभावस्यापि पश्चाच्छुद्धता न स्यात् / एकमेकान्तादिमतं निरस्योभयस्वभावाङ्गीकरणे न किमपि दूषण भवेत् // 9 // व्याख्यार्थः केवलपना जो है वह शुद्धभाव है अर्थात् उपाधिभावसे रहित केवल द्रव्यके अन्तर्गत भावका जो परिणाम है वह शुद्ध स्वभाव है / और इससे अन्य अशुद्ध भाव है / वह उपाधिसे उत्पन्न होता है / अर्थात् उपाधिसे उत्पन्न जो बाह्यभाव है उस बाह्य भावके परिणमनरूप जो योग्यता है वही अशुद्ध स्वभाव है। अब यदि शुद्ध भावका स्वीकार न करें तो मुक्ति नहीं हो सकती है और यदि अशुद्ध स्वभावको नहीं मानें तो जीवके कर्मोंका संबन्ध नहीं बनता है। इसी कारणसे शुद्ध स्वभावके तो कभी अशद्धता नहीं होती है और अशुद्ध स्वभावके कभी शुद्धता नहीं होती। इस प्रकार एकान्तवाद आदिका खंडन करके शुद्ध और अशुद्ध इन दोनों स्वभावोंके मानने में कोई दूषण नहीं है // 9 // 27 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001655
Book TitleDravyanuyogatarkana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhojkavi
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1977
Total Pages226
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Religion, H000, & H020
File Size19 MB
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