________________ [ 269 द्रव्यानुयोगतर्कणा पसाना निरूढा लक्षणासे यह प्रकार भेद है / और प्रयोजनवती सारोपा तथा साम्यवसाना लक्षणा तो यहच्छानिमित्तसे स्वभावभेदसाधक है / यह यहांपर भावार्थ है // 4 // परमभावग्राहके तु भव्याभव्यौ च पर्ययो / शुद्धाशुद्धौ ततश्चोक्तो चैतन्यमात्मनः स्मृतम् // 5 // भावार्थ:-परमभावग्राहक नयके मतमें भव्य तथा अभव्य स्वभाव है और शुद्ध स्वभाव तथा अशुद्ध स्वभाव भी परमभाव ग्राहक नयके मतसे ही है तथा चेतन स्वभाव आत्माके माना गया है // 5 // व्याख्या / भव्यामव्यौ च स्वभावी परममावग्राहके नये मन्तव्यौ / भव्यतास्वभावो निरूपितोऽस्ति, अमव्यतास्वभाव उत्पन्नस्वभावस्य तथा परमभावस्य साधारण्यमस्ति / ततोऽत्रास्तिनास्तिस्वमावाविव स्वपरद्रव्यादिग्राहकनययोः प्रवृत्तिनं भवेत् / तथा शुद्धाशुद्धस्वभावी तुक्तो ज्ञेयो / यथा पूर्वत्र परमभावग्राहकनये तद् ज्ञेयाविति / तथा चैतन्यं चेतनस्वभाव आत्मन आत्मारामस्य स्मृतं नान्येषाम, आत्मा संसारस्था चेतन इति / 1 / 10 / 11 / 12 / 13 // 5 // व्याख्यार्थः-परमभाव ग्राहक नयकी अपेक्षा भव्य स्वभाव तथा अभव्य स्वभाव मानने योग्य हैं / भव्यता स्वभाव पूर्व प्रकरणमें कह आये हैं और अभव्यता स्वभाव उत्पन्न स्वभाव तथा परम भावकी साधारणतामें है। इसलिये यहापर अस्ति नास्ति स्वभावों के समान स्वकीय तथा परकीय द्रव्यादि प्राहक नयोंकी प्रवृत्ति नहीं होती है अर्थात् जैसे अस्ति स्वभाव स्वद्रव्यादिग्राहक नयसे और नास्तिस्वभाव परद्रव्यादिग्राहक नयकी अपेक्षासे माना गया है, यह बात यहां नहीं है। और शुद्ध तथा अशुद्ध स्वभाव जैसे पूर्व प्रकरणमें कह आये हैं वैसे यहां भी समझने चाहिये / और चेतन स्वभाव केवल जीवके ही है, भन्य द्रव्योंके नहीं / क्योंकि जो संसारी जीव है वह चेतन है / इस प्रकार इस लोकमें भव्य 9 अभन्य 10 शुद्ध 11 अशुद्ध 12 और चेतन 13 इन 5 भावोंका वर्णन किया गया है // 5 // अब चैतन्यादिस्वरूपं कथयन्नाह / अब चेतनता आदिका स्वरूप कहते हुए श्लोक पढ़ते हैं। असद्भूतव्यवहारात्कर्मनोकर्मचेतना / परमभावग्राहके तस्याचेतनधर्मता // 6 // भावार्थ:-असद्भूतव्यवहार नयसे कर्म तथा नोकर्ममें ही चेतनाका व्यवहार होता है और परमभावग्राहक नयमें उस कर्म नोकर्मजनित चेतन स्वभावके अचेतन धर्मपना है // 6 // __ व्याख्या / असद्भूतव्यवहारादसद्भूतव्यवहारनयात्कर्मनोकर्मणोः कर्माणि ज्ञानावरणादीनि नोकर्माणि मनोवचनकायात्मकानि ततो द्वन्द्वस्तयोरेव चिच्चेतनस्वभावः स्यात्, पेन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org