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श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम्
और पर्यायार्थिक मतमें द्रव्य पर्यायोंसे भिन्न नहीं है । क्योंकि - पर्यायोंसे जो अर्थक्रिया है; उस अर्थक्रियाका नित्य उपयोग कहां होता है । अर्थात् सुवर्णके कुण्डलआदि तथा मृत्तिका घटआदि पर्यायोंसे जो आभूषण तथा जलधारणआदिरूप अर्थक्रिया ढ है; वह नित्य नहीं है, क्योंकि-पर्यायोंके नष्ट होनेके पश्चात् वही सुवर्ण तथा मृत्तिका रूपद्रव्य शेष रहता है || २ ||" यह द्रव्यार्थिक तथा पर्यायार्थिकनयका लक्षण है; इस लिये अतीत (भूत) तथा अनागत ( भविष्य ) पर्यायोंका प्रतिक्षेपी ( दूर फेंकनेवाला ) शुद्ध अर्थ पर्यायको मानता हुआ ऋजुसूत्रनय द्रव्यार्थिक किस रीतिसे होवे ऐसा इन आचार्योंका अभिप्राय है । इस कारण उन आचायोंके मतमें ऋजुसूत्रनय द्रव्यावश्यक के विषयमें लीन नहीं होता है; और उस प्रकार " उज्जुसुयस्स एगे अणुव उत्ते एगं दब्बास्यं पुहुत्त न्थि " इस अनुयोगद्वारसूत्रका विरोध होगा । और वर्त्तमान पर्यायका आधारभूत तथा निजद्रव्यके पूर्वापरपरिणाममें साधारण ऊर्द्धतासामान्य द्रव्यांश है |१| सादृश्य सब व्यक्तियोंमें समानता के अस्तित्वरूप तिर्यक्सामान्य भी द्रव्यांश ही है ।। २॥ और इनमें से एकको भी पर्यायनय नहीं मानता तब ऋजुसूत्र पर्यायार्थिक है; ऐसा कहनेवालोंके यह सूत्र कैसे संगत होता है । इस कारण क्षणिक द्रव्यको कहनेवाला तो सूक्ष्म ऋजुसूत्र है; और उस उस वर्त्तमानपर्याय को प्राप्त हुए द्रव्यको कहनेवाला स्थूलऋजु - सूत्र है; ऐसे ऋजुसूत्रको द्रव्यार्थिकनय कहना चाहिये यह सिद्धान्तवादियों का मत है । और सूत्रपरिभाषित ( सूत्रोक्त ) अनुपयोग द्रव्यांशको लेकर सूत्रविरुद्ध चलनेवाले तार्किक ( नैयायिक) के मत से नोपर्यायपद भी सिद्ध होता है । यह हमारा मुख्यरूपसे निर्धारित
सिद्धान्त है ।। १५ ।।
एवमन्तर्गतानां स्यादुपदेशः कथं पृथक् ।
पञ्चभ्यो हि यथा सप्तस्वर्थभेदो मनाङ न हि ॥ १६ ॥
भावार्थ — इस प्रकार से अन्तर्भूत द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिकनयोंका पृथक रूपसे उपदेश कैसे हो सकता है ? और यदि ऐसा कहो किं-मतान्तर में पांच नय हैं; उनमें दो मिलाकर जैसे सात नय मानते हैं; उसी प्रकार हमारे इन नयोंका भी भिन्न उपदेश होगा सो नहीं क्योंकि - हम जो पांचसे भिन्न दो मानते हैं; उनमें विषयभेद है; और तुम्हारे दो नयोंमें किंचित् भी विषयभेद नहीं अतः भिन्न उपदेश नहीं हो सकता ॥ १६ ॥
1 व्याख्या
एवमन्तर्गतानामन्तर्भावितानां द्रव्यार्थिकपर्यायार्थिकानां नयानां
पृथग्मिन्न उपदेशः कथं कृतः स्यात् । यद्येवं कथयत मतान्तरे पञ्च नयाः सन्ति तेषु द्वाविमौ मिश्रितो सन्तो नय सप्तकमिति व्यवहारो जायते तेन द्वयोः द्रव्यार्थिकपृथगुपदेशो भविष्यतीति चेन्न पर्यायार्थिकयोः द्रव्यार्थ पर्यायायिकयोरपि विषयभेदोऽस्ति
पृथगुपदेशस्तद्वदस्माकमपि वक्तव्यम । शब्वसमभिरूढैवं भूतानां सनयेभ्यो भिन्नविषयत्वं
तथैव
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यथा दर्शयत 1
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