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________________ द्रव्यानुयोगतर्कणा [१२.. व्याख्या । यथा अङ्गिनां प्राणिनां भव्याना प्राक् पुद्गलपरावर्ते प्रथमपुद्गलपरावर्ते जात्येकवचनम् । अर्थात् अनन्तेषु पुद्गलपरावर्तेषु प्रथम व्यतीतेषु सत्सु ओवजा सामान्यरूपा धर्मशक्तिस्तदनुगता आसीत् । यद्य व न मवेत्तहि अन्त्यपुद्गलपरावर्ते सा कुतः प्राप्स्यते । यत: 'नामतो विद्यते भाव' इत्यादिवचनात् । तथा पुनरन्त्यावर्ते चरमपुद्गलपरावर्ते धर्मशक्तिः समुचिता ख्याता । अत एवाचरमपुद्गल. परावर्तकालो भवबाल्यकालः पुनरन्त्यपुद्गलपरावर्तकालो धर्मयौवनकालश्च कथ्यते । उक्त च । अचरमपरिवटै सु कालो भवबालकालगो मणिओ । चरमोउ धम्मजुव्वणकालो तह वन्नभेउत्ति । १॥ एतद्विशत्यां पठितमिति व्याख्यार्थः-जैसे भव्य जोवोंके प्रथम पुद्गलोंके परावर्तनोंमें, "प्राक्षुद्गल परावर्ते" यहां जातिकी अपेक्षा से एक वचनका प्रयोग किया गया है-भावार्थ-अनन्त परावर्त्तमान अर्थात् एकके पीछे निरन्तर गमनागमनशील जो पुद्गल प्रथम व्यतीत होते चले आये हैं उनमें ओघसे उत्पन्न तथा उनके सब पर्यायोंमें अनुगत सामान्य रूपको धारण करनेवाली धर्मशक्ति विद्यमान थी। क्योंकि यदि ऐसा न माना जाय तो अन्तिम पुद्गल परावर्तनमें उन पुद्गलोंको पर्यायोंमें चलानेवाली धर्मशक्ति कहांसे प्राप्त हो सकती है ? क्योंकि असत् पदार्थका भाव अर्थात् विद्यमानपना नहीं हो सकता इत्यादि वचन है । इससे यह सिद्ध हुआ कि प्रथम पुद्गलोंके परावर्त्तनोंमें सामान्यरूप ओघसे उत्पन्न धर्मशक्ति अवश्य थी । तथा अन्तिम पुद्गलोंके परावर्तनों में जो विद्यमान धर्मशक्ति है उसका समुचिता नाम है। इसी कारणसे प्रथम पदगलों का जो परावर्तन काल वह भवका बाल्य काल है, और जो अन्तके पुद्गलोंका परावर्तन काल है वह धर्मका योवनकाल कहा जाता है । इस विषयमें यह वचन भी कहा गया है किप्रथम पुद्गलोंके परावर्त्तनोंका काल भवका बाल्यकाल कहलाता है, तथा अन्तके पुद्गलोंका परावर्तन काल धर्मयौवनकाल कहलाता है ।। यह गाथा विशति नामक ग्रंथमें पठित है ॥८॥ अथ द्रव्शयक्ति व्यवहारनिश्चयनयाभ्यां दर्शयन्नाह । अब द्रव्यकी शक्तिको व्यवहार तथा निश्वयनयसे दर्शाते हुए अग्रिम सूत्र कहते हैं । कार्यभेदाच्छक्तिभेदो व्यवहारेण दृश्यते । युक्निश्चयनयादेकमनेकैः कार्यकारणः ॥९॥ भावार्थ-व्यवहारनयकी अपेक्षासे कार्योंके भेदसे शक्तिभेद भी दीख पड़ता है, तथा निश्चयनयकी अपेक्षासे तो अनेक कार्य तथा कारणोंसे युक्त होने पर भी निजशक्ति स्वभाव एकही द्रव्य है ॥९॥ ___ व्याख्या । एवं पूर्वोक्तप्रकारेण एककस्य कार्यस्य ओघशक्तिसमुचितशक्तिरूपाः शक्तयोऽनेकश एकद्रव्यस्य प्राप्यन्ते । ताः पुनव्यवहारनयेन व्यवहृताः सत्यः कार्यकारणभेदं सचयन्ति । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001655
Book TitleDravyanuyogatarkana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhojkavi
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1977
Total Pages226
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Religion, H000, & H020
File Size19 MB
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