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श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् भावार्थः-उत्पाद ध्रौव्य तथा नाशरूप त्रिविध लक्षणोंसे द्रव्योंका परिणाम क्षण क्षणमें परस्पर विरोधरहितपनेसे ओर प्रत्यक्षसे दीख पड़ता है ॥२॥
व्याख्या । उत्पादव्ययनिर्णाशैर्लक्षणस्त्रिभिद्रं व्यस्य क्षणे क्षणे समये समये परिणामोऽस्ति । अत्र कश्चिदाह । यत्रोत्पादव्ययौ भवतस्तत्र ध्रौव्यं नास्ति यत्र च धोव्यं तत्रोत्पादव्ययौ न स्यातामिति विरोधस्तिष्ठति तदा एकत्र लक्षणत्रयं कथं संभवेत् । यथा-छायातपावेकत्र न स्यातां तद्वदेतावेकत्र न भवेतां चेति । तत्रोत्तरं -यथोष्णाशीतस्पशौं क्रमेणानलजलयोः परस्परपरिहारेण दृष्टी तयोरेकत्र स्थान उपसंहारेण विरोधोऽप्यस्ति । परमत्र तु सर्वलक्षणान्येकत्र प्रत्यक्षं विलोक्यन्ते । परस्परपरिहारेण कुत्रापि प्रत्यक्षसिद्धत्वं नास्ति । तदा कथमेतद्विरोधस्थानं भवेत् । अनादिकालीनकान्तवासनया मोहिताः प्राणिन एतेषां विरोध पश्यन्ति, परंतु परमार्थतो विचार्यमाणो विरोधो न ह्यस्ति । समयनैयत्येन प्रत्यय एव विरोधनाशहेतुरिति ॥२॥
व्याख्यार्थः-उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य इन तीनों लक्षणोंसे संसारके द्रव्योंका परिणाम (परिवत न) क्षण क्षण ( समय २) में होता है। अब यहांपर कोई कहता है; कि-जहाँपर उत्पाद तथा नाश है; वहांपर ध्रौव्य नहीं है, और इसी प्रकार जहाँपर ध्रौव्य है; वहां उत्पत्ति तथा नाश नहीं रह सकते । इस प्रकार विरोध रहता है; तब एक वस्तुमें उत्पाद व्यय ध्रौव्यरूप तीनों लक्षण कैसे संभव होते हैं। जैसे छाया और आतप ( धूप ) यह दोनों एक जगह नहीं रह सकते वैसे ही उत्पाद व्यय ओर धोव्य यह दोनों भी एक पदार्थमें नहीं रह सकते हैं ? अब इस शंकाका उत्तर कहते हैं; कि-जैसे उष्ण और शीत स्पर्श परस्परके परिहारसे क्रमसे अग्नि तथा जलमें दृष्ट हैं; अर्थात् परस्परके परिहारसे उष्णस्पर्श अग्निमें और शीतस्पर्श जलमें देखाजाता है; और उन दोनों स्पर्शीका किसी एक स्थानमें अर्थात् केवल अग्नि अथवा जलमें उपसंहार (ग्रहण )करो तो विरोध भी है; परन्तु यहां तो सब लक्षण ( उत्पाद व्यय ध्रौव्यरूप तीनों लक्षण ) एक वस्तुमें प्रत्यक्ष रूपसे देख पड़ते हैं; और परस्परके परिहारसे अर्थात् एक दूसरेको दूर करके ( उत्पादके विना व्यय, व्ययके बिना उत्पाद ) कहीं भी प्रत्यक्षसे सिद्ध नहीं हैं; अर्थात् किसी एक भी पदार्थ में केवल उत्पाद व्यय अथवा ध्रौव्य प्रत्यक्ष प्रमाणसे नहीं देखा जाता है; तब यह विरोधका स्थान कैसे है ? अनादि काल की जो एकान्तकी वासना है; उससे मोहित होकर प्राणी इनके परस्परविरोध देखते हैं; परन्तु परमार्थसे विचार किया जावे तो कोई विरोध नहीं है; क्योंकि-समयकी नियततासे जो विश्वास हुआ वही विरोधके नाश करनेमें कारण है ॥२॥
पुनस्तदेव कथयन्नाह । पुनः उसी प्रस्तुत त्रिविध लक्षण का विस्तार करते हैं।
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