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________________ द्रव्यानुयोगतर्कणा [ १६५ कुर्वन्ति तदपि तेषां निष्फलमेव भवेत् । उक्त च "सुन्दर बुद्धी इकयं बहुयं पिण सुन्दरं होई” ततो द्रव्यगुणपर्यायभेदपरिज्ञानाच्छुद्ध सम्यक्त्वं यदर्तव्यम् ॥ २ ॥ व्याख्यार्थ :- इन द्रव्य आदि के ज्ञानसे निश्चित सम्यक्त्व कहागया है; वह सम्यक्त्व कैसा है; सो कहते हैं; समस्त जीवोंकी रक्षारूप दया, अभय आदि भेदसे पांच प्रकारका दान, और क्रिया अर्थात शास्त्रोक्त कर्त्तव्य यह जिसके मूल हैं । इस विषय में अन्यत्र कहा भी है; कि- " जो जीवआदि नव २ पदार्थों को जानता है; उसीके सम्यदर्शन होता है । पुनः विंशिकानामक ग्रन्थ में ऐसा वचन है; कि – एक सम्यक्त्वके होनेपर दानादिक समस्त क्रिया सफल होती हैं; और इसीसे यह मोक्षफला अर्थात् मोक्षरूप फलको देनेवाली हैं; और सम्यक्त्वके विना जो क्रिया हैं; वह मोक्षरूप फलको देनेवाली नहीं हैं । इसलिये सम्यक्त्व के विना धर्मरूप मार्ग में प्रवृत्त हुआ मनुष्य ऐसे दुःखों को पाता है; जैसे मार्ग में चलता हुआ जन्मान्ध । तात्पर्य यह कि—जैसे जन्मसे ही अंधा जीव मार्ग में चलताहुआ खड्ड में गिरनेआदिरूप दुःखका अनुभव करता है; वैसे ही सम्यक्त्वसे जो हीन है; वह भी संसाररूपी कूपमें गिरनेवाला होता है । इस हेतुसे सम्यक्त्व के विना जो अगीतार्थ हैं; अथवा अगीतार्थनिश्रित हैं; वह सब अपने अपने दुराग्रहके वसे हठरूप मार्ग में गिरे हुए हैं, इसलिये इन सर्वोको जन्मान्धोंके सदृश समझना चाहिये । और वह लोग जिस धर्म कर्मको अच्छा समझकर करते हैं, वह भी उनके निष्फल ही होता है । ऐसा कहा भी है "सुन्दर बुद्धिसे अर्थात् उत्तम परिणामोंसे किया हुआ उत्तम काम भी सम्यक्त्वके विना सुन्दर नहीं होता" इसलिये द्रव्यगुण तथा पर्यायों के जानने से जो शुद्ध सम्यक्त्व होता है, उसका आदर करना चाहिये अर्थात् द्रव्यादिके ज्ञानसे सम्यक्त्वको शुद्ध करके उसका ग्रहण करना चाहिये ||२|| अथ नामतः षण्णां द्रव्याणां कीर्त्तनमाह । अब नामसे स्वमाननीय षट् द्रव्योंका कथन करते हैं । धर्माधर्मो नभःकालौ पुद्गलो जोव इत्यमी । अर्थाः षट् समये ख्याता जिनैराद्यन्तवर्जिताः ॥३॥ भावार्थ:- धर्म, अधमें, आकाश, काल, पुद्गल और जीव इस प्रकार इन आदि अन्तवर्जित छह द्रव्योंको श्रीजिनेन्द्रोंने जिनागममें कहा है ॥ ३॥ व्याख्या afaraiva धर्माधर्मौ धर्मास्तिकायाधर्मास्तिकायौ । तथा नभःकाली नभश्च कालश्च नमः कालावाकाशास्तिकाय कालौ 1 पुद्गलः पुद्गलद्रव्यम, जीवो जीवद्रव्यम, इत्यमी षट् । न न्यूना नाधिकाः । अर्थाः पदार्थाः समये श्रीजिनप्रणीतागमे ख्याताः कथिताः श्रीजिनः श्रीवीतरागः । कीदृशा आद्यन्तवजिता अनाद्यनिधना इत्यर्थः । एतेषां षण्णां कालं वर्जयित्वा पञ्चास्तिकायाः अस्तयः प्रदेशास्तैः कायन्ते शब्दायन्त इति पचा Jain Education International 1 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001655
Book TitleDravyanuyogatarkana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhojkavi
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1977
Total Pages226
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Religion, H000, & H020
File Size19 MB
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