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________________ ८८ ] श्रीमद्रराजचन्द्र जैनशास्त्रमालायाम् अर्थतस्यैवोदाहरणं पक्षान्तरव्युदासाय प्रकटीकरोति । अब अन्य पक्षोंके निरासार्थ इसी नैगमका पुनः उदाहरण देते हैं । आरोपाद्वर्त्तमानश्च यथाभक्तं पचत्यसौ । अत्र भूतक्रियां लात्वा भूतवाक्यं विलुप्यते ॥ ११ ॥ भावार्थ:- आरोपले भूत तथा भविष्यत् भी वर्त्तमानके तुल्य ही होते हैं; जैसे यह भात पकाता है; यहां पर भूत क्रियाको वर्त्तमानरूपसे ग्रहण करके भूतकालिक वाक्यका प्रयोग नहीं करते || ११ ॥ व्याख्या । आरोपाद्वर्त्तमानो भवति यथा असौ देवदतो मक्तं पचतीति वर्त्तमानता परमत्र भक्तस्य कियन्तोऽवयवाः सिद्धाः सन्ति, अथ च कियन्तञ्च वयवाः सिद्ध्यमानाः सन्ति । परन्तु पूर्वापरभूतावयवक्रियायाः सन्तानो ह्येकबुद्धयारोप्यमाणो वर्तमानारोपाऽस्तीति । कथयति अत्र हि कश्चित् । आरोपसामग्रीमहिम्ना अवयवानां भूतक्रियां लात्वा पचतीति स्थाने अपाक्षीदिति प्रयोगं न करोति यतस्तदुक्तिः । नैयायिकस्तु चरमक्रियाध्वंसः पाक इत्यत्रातीत प्रत्ययविषयता तन्मते किञ्चित्पत्वम्, किञ्चिदपक्वम् पच्यत इति प्रयोगान्न भवितुमर्हति तस्मादत्र वर्तमाना रोपनैगम एव भेदो ज्ञातव्यः । तेनैवात्र भूतक्रियां लावा भूतवाक्यं विलुप्यते तदसमञ्जममेवेति ॥ ११ ॥ 1 व्याख्यार्थः- आरोपसे भूत तथा भावी भी वर्त्तमान हो जाता है । जैसे यह देवदत्त भात पकाता है । यह पर भातकी वर्त्तमानदशा प्रतीति होती है । परन्तु पाककालमें भातके कुछ अवयव तो सिद्ध (सीझे ) हैं; और कितने ही अवयव सिद्ध होने ( पकने ) वाले हैं, तथापि पूर्व अपर अवयवभूत क्रियासमूहको एक बुद्धिमें आरोप करनेसे 'पचति' ( पकाता है ) यह वर्त्तमानत्वका आरोप है । ऐसा यहांपर कोई कहता है । और वह आरोप सामग्रीकी महिमासे अवयवोंकी भूतक्रियाको करके "पचति' पकाता है. इसके स्थान में 'अपाक्षीत् ' ( पकाया ) ऐसा प्रयोग नहीं करता है; इसीलिये उसका यह पूर्वोक्त कथन है । और नैयायिक तो अन्तिम क्रियाके नाशको पाक कहते हैं; अर्थात् तंडुलोंको चूल्हेपर रखनेसे आदिके जब तक अन्तिम क्रिया चांवलोंके सब अवयवोंको पकाकर नष्ट न होजाय तत्र तक पाक यहां पर भूतकालकी विषयता है । उनके मत में चांवलका कुछ अंश पक्व है; और कुछ अंश अपक्व है; इस दशा में "देवदत्तेन ओदनः पच्यते" देवदत्त चांवल पकाता है; यह प्रयोग देखने में आता है; सो नहीं हो सकता। क्योंकि — अभी तक अन्तकी क्रियाका नाश तो हुआ ही नहीं, इस हेतुसे पचति इस स्थल में भावि नैगमसे वर्त्तमानका आरोप मानते हैं । इसलिये 'पाक' १ " वर्त्तमाने" लट्” इस पाणिनीय ३ । २ । १२३ । सूत्रसे वर्त्तमान कालमें लट् लकार होता है; और भूतकाल में लुङ् होता है; वर्तमान में "पचति" भूतमें "अपाक्षीत्" रूप होता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001655
Book TitleDravyanuyogatarkana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhojkavi
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1977
Total Pages226
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Religion, H000, & H020
File Size19 MB
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