________________
द्रव्यानुयोगतर्कणा
भूतवन्नैगमो भावी जिनः सिद्धो यथोच्यते । केवल सिद्धवद्धर्त्तमाननैगमभाषणे ॥ १० ॥
भावार्थ:- भूतके साथ भावनैगम द्वितीय भेद है । जैसे जिन भगवान् सिद्ध हैं, तथा वर्त्तमान नैगमके कथनमें सिद्धवत् आरोपसे केवली सिद्ध हैं । ऐसा भी व्यवहार होता है ॥ १० ॥
[ ८७
व्याख्या | भावी नैगमो भूतयुक्तो ज्ञेयः । भाविनि भूतवदुपचारो । यथा हि जिनः केवली सिद्धः सिद्धवज् ज्ञायते तदा भावी नैगमो भवति । असिद्धोऽपि जिनः सिद्धवज्जीर्णज्वलित रज्जुप्रायाघातिकर्मचतुष्टयसद्भावेऽपि शीघ्रभावितक्षयोपस्थितावसिद्धोऽपि सिद्ध एवेति ज्ञेयम् । अथ तृतीय भेदमाह । अनिष्पन्नमपि निष्पन्नतया व्यपदिश्यमानं भावि वर्त्तमानमिवान्वेषणीयमिति । यथा हि केवली केवलज्ञानकलितो भगवान् त्रयोदशगुणस्थानस्थितः सिद्धः कर्मदोषपोषविकलः संभाव्यते । वर्तमानदशायां हि जिनावस्था वर्त्तते कियकालानन्तरं भाविनी सिद्धावस्थानुदिताच्यारोपबलादयं केवली सिद्ध इति भाविविषयो वर्त्तमानविषयतया गृहीतस्तस्मात् माविनैगमः । अत्र हि किञ्चित्सिद्धमुत किञ्चिदसिद्धमेतदुभयमपि जिनः सिद्धवद्वर्त्तमाननैगमाद् ज्ञेय इति ॥१०॥
Jain Education International
व्याख्यार्थ::- अब भावी नैगमको भूत संयुक्त समझना चाहिये अर्थात् भावीमें भूतके समान उपचार होता है । जैसे “जिन भगवान् जो केवली हैं; सो सिद्ध हैं; अर्थात् सिद्धकी तरह जाने जाते हैं” ऐसे व्यवहारमें भावीनैगम होता है । असिद्ध भी जिन सिद्धके समान हैं; अर्थात् जीर्ण ( पुरानी या जूनी) तथा अग्निसे प्रज्वलित रज्जु (रस्सी) के सदृश जब अघातिया चार कर्मोंका अर्थात् आयुकर्म, गोत्रकर्म, नामकर्म और वेदनी इन अघातिया कर्मचतुष्टय के सद्भाव ( विद्यमानता ) में भी शीघ्रतासे उन कर्मोंके नाशको उपस्थित होनेसे असिद्ध भी सिद्ध ही है । ऐसा समझना चाहिये । अब तृतीय भेदका वर्णन करते हैं - असिद्ध भी सिद्धि निकट होनेसे जब सिद्धतासे कहाजाता है; तब भावी भी वर्त्तमानके सदृश जानना चाहिये; जैसे केवली अर्थात् त्रयोदश १३ वें सयोगकेवली नामक गुणस्थान में विराजमान केवलज्ञानके धारक श्रीजिनेन्द्र भगवान् सिद्ध अर्थात् कर्मरूप दोषोंकी जो पुष्टि है; उससे रहित संभावित होता है । भावार्थ- वर्त्तमान दशामें जिन अवस्था विद्यमान है, कुछ कालके पश्चात् सिद्ध अवस्था होनेवाली है; वह सिद्धावस्था इस वर्त्तमान जिन अवस्था में उदयको प्राप्त नहीं हुई है; तथापि आरोपके बलसे यह केवली (श्रीजिनेन्द्र ) सिद्ध हैं; इस प्रकार भावी जो सिद्ध अवस्थारूप विषय है, वह वर्त्तमान विषयपने से ग्रहण कियागया इस कारण यह भावी नैगमनामक नैगमनका तृतीय भेद है । यहांपर श्रीजिनेन्द्र किसी अंश में तो सिद्ध और किसी अंशमें असिद्ध ऐसे सिद्धासिद्धरूप है; तो भी वर्त्तमान नैगमसे उनको सिद्धके समान जानना चाहिये ||१०||
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org