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________________ द्रव्यानुयोगतर्कणा [६३ तंत्रभावसे अर्थात् अन्य नयसे विमुख होनेसे मिथ्यादृष्टियोंके ही निकट निरन्तर रहता है न कि स्याद्वादियोंके निकट ॥ ५ ॥ विशेषावश्यकेऽप्युक्तः संमतावर्थ एष च । भेदाभेदोपचाराद्याः संभवन्ति नयादिह ॥ ६ ॥ भावार्थ:-भेद, अभेदआदिके उपचारआदि स्याद्वादमें नयसे ही होते हैं; यही अर्थ अर्थात् यही अभिप्राय विशेषावश्यक तथा संमतिग्रन्थमें कहा है ॥ ६ ॥ व्याख्या । अयमों विशेषावश्यके तथा संमतिग्रन्थमध्य उक्तोऽस्ति । तथा च तद्गाथा"दोहिं विणये हिं णीय सत्थ मूलण्ण तहवि मिच्छत्तं । जस्स विसय प्पहाणं तणेणं अणुण्णनिरवेक्खं ।१।" "स्वार्थग्राही इतरांशाप्रतिक्षेपी सुनय” इति सुनयलक्षणम । " स्वार्थग्राही इतरांशप्रतिक्षेपी दुर्नय” इति दुर्नयलक्षणम् । एवं नयान्नयविचाराच्च भेदाभेदग्राह्यव्यवहारः संभवति । तथा नयसङ्कतविशेषाग्द्राहकवृत्तिविशेषरूप उपचारोऽपि संभवेत् । तस्माद्भेदाभेदयोमुख्यत्वेन प्रत्येकनयविषयो मुख्यामुख्यत्वेनोभयनयविषयरूप उपचारश्च मुख्यवृत्तिवनयपरिकरो भवेत् परन्तु नयविषयो न भवति । अयं च सरल: पन्थाः श्वेताम्बरप्रमाणशास्त्रसिद्धो ज्ञेयः । नीयते येन श्रु ताख्यप्रमाणविषयीकृतस्यार्थस्यांशस्तदितरांशीदासीन्यताः स प्रतिपत्त रमिप्रायेण विशेषो नय इति । अत्रकवचनमतन्यं तेनांशावंशा वा येन परामर्शविशेषेण धतप्रमाणप्रतिपन्नवस्तुनो विषयीक्रियते तदितरांशीदासीन्यापेक्षया स नयोऽभिधीयते । तदितरांशप्रतिक्षेपे तु तामासता मणिष्यते । प्रत्यपादयाम च स्तुतिद्वाविंशतिके "अहो चियं चित्रं तव चरितमेतन्मुनिपत, स्वकीयानामेषां विषमविषयव्याप्तिवशिनाम । विपक्षापेक्षाणां कथयसि नयानां सुनयतां, वि पुनरिह विमो दुष्टनयताम् । १।" पञ्चाशतिके च-"निश्शेषांशजुषां प्रमाणविषयीभूयं समासेदुषां, वस्तूनां नियतांशकल्पनपराः सप्तश्र ता: मङ्गिन: । औदासीन्यपरायणास्तदपरेचां भवेयुर्नया, श्वे देकांशकलङ्कपङ्ककलुषास्ते स्युः सदा दुर्नयाः । १ ।" इति ॥ ६ ॥ व्याख्यार्थ:-यह अभिप्राय विशेषावश्यकनामक ग्रन्थ और सम्मति ग्रन्थमें कहा है और उस ग्रन्थकी गाथाका अभिप्राय यह है कि “यद्यपि द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक इन दोनों मूल नयोंसे शास्त्र जानाजाता है तथापि जो नय अपना ही विषय प्रधान रखता है और परस्परकी अपेक्षा नहीं रखता अर्थात् दूसरे नयके मुख्य अर्थको गौणतासे भी नहीं कहता उसको मिथ्यात्व (दुर्नय) जानना चाहिये । १ । तथा स्वार्थका ग्राही हो और अन्य अर्थका निषेधक न हो वह सुनय है अर्थात् निज प्रधानशक्ति जो अपने अर्थको कहे उसको तो ग्रहण करे और अन्य नयके अर्थका तिरस्कार न करे किन्तु उपचारसे उस दूसरे नयके अर्थका भी कथन करे वह सुनय है । यही सुनयका लक्षण है। और जो केवल स्वार्थमात्रका ग्राही हो और अन्य अर्थका निषेधक हो वह दुर्नय है। यह दुनयका लक्षण है । इस प्रकार नय अर्थात् नयके विचारसे द्रव्य, गुण, पर्यायोंमें भेद तथा अभेदको ग्रहण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001655
Book TitleDravyanuyogatarkana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhojkavi
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1977
Total Pages226
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Religion, H000, & H020
File Size19 MB
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