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श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् करने योग्य व्यवहारका संभव है। और नयके संकेत विशेषसे ग्राहक जो शक्तिविशेष है उसरूप उपचारका भी संभव है । इसलिये भेद तथा अभेदमें मुख्यतयासे प्रत्येक नयका विषय है अर्थात् एक अर्थकी प्रतिपादता प्रत्येक नयमें है । और मुख्य तथा अमुख्यता( गौणता )से द्रव्यार्थिक तथा पर्यायार्थिक इन दोनों नयोंके विषयरूप जो उपचार है वह मुख्य वृत्तिके सदृश नयका परिकर होता है परन्तु नयका विषय नहीं होता यह सरल मार्ग श्वेताम्बर मतके प्रमाण ( न्याय ) शास्त्रसे सिद्ध है ऐसा जानना चाहिये क्योंकि श्रुतनामक प्रमाणसे विषयमें कियेहुए पदार्थका अंश जिसके कहे हुए अन्य अंशकी उदासीनतासे प्राप्त किया जाय वह प्रतिपत्ता ( बोद्धा )का जो अभिप्राय विशेष है सो नय कहलाता है। 'श्रुताख्यप्रमाणविषयीकृतस्यार्थस्यांशः' यहां पर “अंशः” यह जो एक वचन दिया गया है वह स्वाधीन नहीं है इस कारण 'अंशौ अंशाः वा' इस प्रकार द्विवचन तथा बहुवचन भी लगा लेना चाहिये । जिस परामर्श (ज्ञान) विशेषसे श्रुत प्रमाणद्वारा ग्रहण किएहुए पदार्थका एक अंश दो अंश अथवा बहुतसे अंश विषयगोचर किये जावें और उससे भिन्न अंश वा अंशोंको उदासीनतासे विषयी किये जाय वह नय कहा जाता है । और जो वस्तुके विवक्षित अंशसे भिन्न अंश वा अंशोंका प्रतिक्षेप अर्थात् निषेध करे उसको आगे नयाभास कहेंगे। और स्तुति द्वात्रिंशतिकामें प्रतिपादित भी किया है कि-हे मुनीन्द्र ! हे विभो श्रीजिनेन्द्र ! आपका यह चरित अत्यन्त विस्मयको उत्पन्न करता है वह चरित क्या है कि आप अपने इन विषम विषयव्याप्तिके वशीभूत हुए जो नय विपक्षकी अर्थात् अपने स्वीकृत अर्थसे विमुख अन्यनयोंसे विवक्षित अर्थकी अपेक्षा रखते हैं अर्थात् गौणतासे उनका भी कथन करते हैं उन नयोंके सुनयता कहते हो और जो अन्य नयद्वारा स्वीकृत अर्थ है उसको निषेध करनेवाले जो नय हैं उनको दुष्ट नय (दुर्नय) कहतेहो ॥ १ ॥ और पश्चाशतिक नामक ग्रन्थमें भी प्रतिपादित किया है कि-संपूर्ण अंशोंको अर्थात् अनन्त धर्मोको धारण करनेवाले
और प्रमाणकी विषयीभूतताको प्राप्तहुए पदार्थों के नियत अंश ( धर्म ) कल्पना करने में तत्पर सात सङ्गी हैं उनमें जो अपने कल्पित अंशसे भिन्न अंशमें उदासीनताको धारण करते हैं वे नय होते हैं और जो एक अपने ही अंशकी कल्पनारूप कलङ्क पङ्क ( दोषमय कर्दम )से मलीन हों अर्थात् एक ही अपने कल्पित अर्थ को तो स्वीकार करें और अन्य अंशोंका निषेध करें तो वे सातों सदा दुर्नय होते हैं ॥२॥६॥
पुनर्भावं कथयन्नाह । पुनः नयके भावको कहते हुए यह सूत्र कहते हैं ।
ये मार्ग सरलं त्यक्त्वोपनयान्कल्पयन्ति वै ।
तत्प्रपञ्च विबोधाय तेषां जल्पः प्रतायते ॥७॥ भावार्थ:-जो इस सरल श्वेताम्बरमतानुसारी नयमार्गको त्यागकर उपनयों
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