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श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् भिन्न शक्ति ( लक्षणा शक्ति )से व्यवहित संकेत अर्थात् भेदरूप अर्थमें वृत्ति है, इस लिये भेदरूप अर्थ प्रतिपादनके अर्थ द्रव्यार्थिकनयकी उपचारसे प्रवृत्ति हुई । ऐसे ही पर्यायार्थिक नयकी भी मुख्य शक्ति तथा उपचार शक्तिको ग्रहण करके भेदाभेद नय विषयमें योजना करलेनी चाहिये, अर्थात् पर्यायार्थिक नय मुख्यवृत्ति अर्थात् वाचकता शक्तिसे भेदरूप अर्थको कहता है और उपचार अर्थात् लक्षणा शक्तिसे अभेदरूप अर्थको भी कहता है ॥ ४॥
कश्चित्कथयति एको नय एकमेव विषयं गृह्णाति तद्रूषयति ।
कोई प्रतिवादी कहता है कि एक नय एक ही विषय ( भेद अथवा अभेदमें किसी एक अर्थ )को ग्रहण करता है । उस सिद्धान्तको अग्रिम श्लोकसे दूषित करते हैं ।
यो भिन्नविषयो ज्ञाने सर्वथा नेति चेन्नयः ।।
तदा स्वतन्त्रभावेन स स्यान्मिथ्यात्विगोचरः ॥ ५ ॥ भावार्थः-जो नय है वह ज्ञानमें निजसे भिन्न नयके विषयको गौणतासे भी सर्वथा नहीं कह सकता ऐसा यदि मानो तो वह नय स्वतन्त्रतासे मिथ्यात्त्वियोंके गोचर होगा ॥५॥
व्याख्या । यो नयः ज्ञाने ज्ञानविषये भिन्नविषयो नयान्तरस्य मुख्यार्थः सर्वथा अमुख्यत्वेनापि न भासते । तदा स नयः स्वतन्त्रमावेन सर्वथा नयान्तरविमुखत्वेन मिथ्यात्विगोचरो मिथ्यादृष्टिमिविवेचनीयः कुदृष्टिपरिगृहीतः स्यात् । एतावता दुर्नय एव भवति । परन्तु सुनयो न भवति । एवं ज्ञेयम । अनुभवेन विचार्यमाण: कश्चिन्नयः भिन्नविषयत्वान्नयान्तरमुख्यार्थत्वासर्वथा अमुख्यत्वादपि न भासते । तदा स्वतन्त्रत्वेन ( नयान्तरविमुखत्वेन ) च मिथ्यात्विनां पार्वे स नयो निरन्तरं तिष्ठतीति भावः ॥ ५ ॥
व्याख्यार्थः-'जो नय है वह ज्ञानमें भिन्न विषय अर्थात् अपनेसे भिन्न दूसरे नयके मुख्य अर्थको सर्वथा गौणतासे भी नहीं भासित करता है ऐसा मानोगे तो वह नय स्वतन्त्रतासे सर्वथा अर्थात् अन्य नयोंसे विमुख होनेसे मिथ्यादृष्टियोंद्वारा विवेचन करने योग्य होवे । अर्थात् मिथ्यादृष्टियोंसे ग्रहण किया हुआ होवे भावार्थ-दुर्भय ही होवे और सुनय नहीं, ऐसा समझना चाहिये। भावार्थ यह है कि-अनुभवसे विचाराहुआ कोई नय भिन्न विषयको अर्थात् अन्य नयके मुख्य अर्थको गौणतासे भी सर्वथा नहीं कहता है तो वह नय स्व
१ अनेकान्तवादमें वस्तुका स्वरूप ही अनेकान्त है तब नयस्वरूप अनेकार्थक क्यों न होगा क्योंकि प्रमाण और नयसे हो तो वस्तुकी विवेचना होती है यदि वह नय भेद अभेदादि अनेकार्थप्रतिपादक उपचारसे. भी न रहा किन्तु किसी एक ही अर्थका प्रतिपादक रहा तब वह नय कुदृष्टियोंका अर्थात् जनमतसे भिन्न मतानुयायी जनोंका ही विषय रहा; और कुद्रष्टियोसे गृहीत होनेके कारण वह दुष्ट नय होगया न कि सुनय अर्थात् स्याद्वादके अनुकूल वह उत्तम नय नहीं होसकता ।
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