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________________ द्रव्यानुयोगतकणा [६१ नय भी द्रव्यादि तीनों पदार्थोंमें अभेद अर्थात् भेदाभाव ही मानता है। क्योंकि मृत्तिका के बिना घट अनुपपन्न है, इसलिये लक्षणा तथा ज्ञानसे घटआदि पदार्थ मृत्तिकारूप द्रव्यसे अभिन्न ही हैं। घटआदि पदोंकी मृत्तिकाआदि द्रव्योंमें इस प्रतीतिको लक्षणा प्रवृत्तिसे माननेवालोंके कोई भी दोष नहीं है, यह सूत्रका तात्पर्य है ॥३॥ अथ पुनर्भेदमेव दर्शयन्नाह । अब पुनः भेदको ही दर्शाते हुए कहते हैं ! गृह्णाति यो नयो धर्मी मुख्यामुख्यतया तथा । तस्यानुसारतस्तेषां वृत्त्योपचारकल्पनम् ॥४॥ भावार्थ:-जो नय मुख्यता तथा गौणतासे भेद अभेदरूप धर्मोंको ग्रहण करता है वहां उसीके अनुसार द्रव्य, गुण, पर्यायोंकी वृत्तिसे उस उपचारकल्पनाका विधान होता है ।। ४॥ व्याख्या । यो हि नयो द्रव्याथिकोऽथवा पर्यायाथिकः धमौं भेदाभेदात्मको प्राधान्यगौणतया गृह्णाति ऊहास्यप्रमाणेन धारयति । तस्य नयस्य द्रव्याथिकस्य वा पर्यायाथिकस्य मुख्यतया साक्षात्सङ्केतेन तथा वा व्यवहितसङ्केतेन चानुसृत्य तेषां द्रव्यगुणपर्यायाणां वृत्त्या तदुपचारकल्पनं विधीयते । यथा गङ्गापदस्य साक्षात्सङ्केत: प्रवाहरूपार्थविषयेऽस्ति तस्मात्प्रवाहेण शक्तिः । तथा "गङ्गातीरे घोषः" गङ्गासङ्कतव्यवहितसङ्कतोऽस्ति । ततश्च यथोपचारस्तथा द्रव्याथिकनयस्य साक्षात्सङ्कतोऽभेदे नास्ति । तत्र शक्तिभेदेन व्यवहितसङ्कतोऽस्ति ततश्चोपचरितत्वं तु पर्यायाथिकनयस्यापि शक्त्योपचार भेदाभेदनयविषयेऽपि योजनीयम ॥४॥ व्याख्यार्थः-जो नय द्रव्यार्थिक हो अथवा पर्यायार्थिक हो भेद तथा अभेद स्वरूप धर्मको प्रधानता अथवा गौणतासे ग्रहण करता है अर्थात् जहां ऊहा नामक ( कल्पना स्वरूप) प्रमाणसे धारण करता है वहांपर उसी द्रव्यार्थिक वा पर्यायार्थिक नयकी मुख्यता अर्थात् साक्षात्संकेत तथा गौणता अर्थात् व्यवहितसंकेतके अनुसार द्रव्य, गुण पर्यायोंकी वृत्ति (शक्ति)से उपचार कल्पनाका विधान होता है ।तात्पर्य यह कि द्रव्यार्थिकनय प्रधानता ( साक्षात् सङ्कत )से अभेदको प्रतिपादन करता है परन्तु वह गौणता ( व्यवहित संकेत )से भेदको भी कहेगा, ऐसे पर्यायार्थिक नय प्रधानता ( साक्षात्संकेत )से भेदको और गौणता ( व्यवहित संकेत )से अभेदरूप धर्मको कहता है । जैसे गंगापदका प्रधानतासे साक्षात्संकेत प्रवाह ( जलकी धारा )रूप अर्थमें है, इसलिये मुख्यतासे तो प्रवाहरूपसे ही शक्ति है तथा गंगातीरमें घोष है यहां तीररूप अर्थमें गंगासंकेतसे व्यवहित संकेत है, इसलिये गंगापदसे गंगातीर साक्षातरूप अर्थ उपचारसे हुआ । अब ऐसे ही द्रव्यार्थिक नयका संकेत तो अभेदरूप अर्थमें है, और उस नयकी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001655
Book TitleDravyanuyogatarkana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhojkavi
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1977
Total Pages226
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Religion, H000, & H020
File Size19 MB
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