________________
श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम द्रव्य है । अथवा जैसे तन्तु (सूत्र) पटरूप कार्यकी अपेक्षासे द्रव्य हैं, और वेही तन्तु अपने अवयवोंकी अपेक्षासे पर्याय कहे गये हैं। किस प्रकारसे ? ऐसा पूछो तो कहते हैं क्योंकि पटके तथा पटकी पर्यायोंके संचालनमें तन्तुओंमें भेद नहीं है, और तन्तुओंके अवयवोंकी अवस्थाओंके संचालनमें अन्वयत्वरूप भेद है; इसलिये पुद्गलस्कन्धोंके मध्यमें द्रव्य तथा पर्याय सापेक्षिक समझना चाहिये । यहाँपर कोई ऐसा कहता है कि इसप्रकार माननेसे द्रव्यस्वरूप स्वाभाविक नहीं रहा किन्तु सापेक्षिक हो गया, तो इस शंकाका समाधान करते हैं:-हे तार्किक सुनो, संपूर्ण वस्तुओंका व्यवहार इस लोकमें अपेक्षासेही होता है, इसलिये अपेक्षासे किसी वस्तुको द्रव्य अथवा पर्याय मानने में कोई दोष नहीं है । और जो नैयायिक समवायी 'कारण आदि द्रव्यका सक्षण मानते हैं उनको भी अपेक्षाका अनुसरण अवश्य करना होगा । और 'गुणपर्यायवद्रव्यम्" गुण तथा पर्यायसहित होना, यह द्रव्यका लक्षण महातत्वार्थसूत्र में कहा है। तथा उद्देश, लक्षण और परीक्षाद्वारा द्रव्योंका विस्तारसे निरूपण भी उस महाशास्त्र तत्वार्थसूत्र में ही है; इसलिये द्रव्योंका विशेष विस्तार उसी शास्त्रसे जानना चाहिये ।।१२।।
अय इत्यं संक्षेपत उक्तम् । अस्यैव गुणपर्याययोभंदादिकांक्षया तदेव दर्शयन्नाह ।
अब द्रव्यका तो संक्षेपसे निरूपण करचुके, आगे इसहीके गुणपर्य्यायोंका भेदादिवर्णन करना है, अतः वही दर्शाते हुये अग्रिमसूत्र कहते हैं।
सहभावी गुणो धर्मः पर्यायः कमभाव्यथ ।
भिन्ना अभिन्नास्त्रिविधास्त्रिलक्षणयुता इमे ॥२॥ भावार्थः-द्रव्यके साथ सदा रहनेवाला जो धर्म है उसको गुण कहते हैं, और द्रव्यमें जो क्रमसे होनेवाला है उसको पर्याय कहते हैं । द्रव्य, गुण तथा पर्याय परस्पर *भिन्न भी हैं, अभिन्न भी हैं, तीन प्रकार के हैं और विलक्षण सहित हैं।
व्याख्या । द्रव्यस्य सहभावी यावद्व्य भावी यो धर्मः स गुण उच्यते । यथा जीवद्रव्यस्योपयोगाख्यो गुणः । पुद्गलस्य ग्रहणं गुणः । धर्मास्तिकायस्य गतिहेतुत्वं गुणः । अधर्मास्तिकायस्य स्थितिहेतुत्वं गुणः । कालस्य वर्तनाहेतुत्वं गुणः । यदैव द्रव्यं उत्पद्यते तदैव ते द्रव्येण गुणा उत्पद्यन्ते । पौर्वापर्यभाव एव नास्ति । गुणगुणिनोः समानसामग्रीकत्वात् मव्येतरविषाणवदिति । अनादिनिधनानां द्रव्यगुणानामुत्पत्तिदर्शनं व्यवहारतः कृष्णादिघटवत् । अथ क्रममावी अयावद्दव्यभावी पर्यायः । यथा जीवस्य नरकादिपर्यायाः ।
(१) न्यायमें द्रव्यको समवायी कारण माना है, जैसे घटआदि कार्य में मृत्तिका समवायी कारण है । (२) जीव और उसके ज्ञान आदि उपयोग व्यवहारदृष्टिले भिन्न हैं ।
(३) परन्तु एकही देश में जीव तथा ज्ञानादिकी उपलब्धि होने से जीवपर्याय अभिन्नभी है । चतुर्विध दर्शन तथा अष्टषिष शानको उपयोग कहते हैं।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org